Monday, June 28, 2010

पिता के लिए

कविता के भीतर
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.

Monday, June 21, 2010

दोस्तों के बहाने

एक बार मन में विचार आया
क्यों न बहुत पीछे रह जाने की पीड़ा
बहुत आगे निकल गये दोस्तों से कहूँ
शायद मन का बोझ
कुछ हल्का हो जाये
पर सवाल था
इन दोस्तों को
तलाशा कहाँ जाये
उनके घर, गली, मोहल्ले
आज भी याद हैं
पर पता नहीं
वे वहाँ अब रहते भी हैं या नहीं
पता नहीं
कौन रहता होगा
अब उन मकानों में
कोई नया ही मकान मालिक
कोई किरायेदार
या फिर
उनके ही अंधे माँ-बाप
एक अनजाना-सा भय
मन में समा गया अचानक
पता नहीं अब भी
पहचान जायें वे मेरी आवाज़
पता नहीं
वे मुझ से ही पूछने लगें
अपने बेटों के पते
पता नहीं
उनकी काँपती आवाज़ें
बढ़ा दें
मेरे मन का बोझ.

Friday, June 18, 2010

दोस्तों के बारे में

कौन समझ सका है
दोस्तों को
सिवाय दोस्तों के
आवारा छोकरों का एक झुण्ड
जो बेझिझक घुस जाता है
घरों में
जैसे हवा के साथ
घर में भरा जाते हैं
पीले पत्ते
कोई वक्त नहीं है
उनके आने का
सुबह, दोपहर, शाम या रात
कभी भी धमक जाते हैं
बिना दरवाज़ा खटखटाये
बहुत जल्दी में हुए
तो सड़क पर ही खड़े होकर
पुकारने लगते हैं
अपने दोस्तों को
उनके घर के नाम से
कुछ भी अलग नहीं है उनका
सब-कुछ अलग होते हुए भी
कपड़ों की
इतनी अदला-बदली होती है
आपस में
कि कोई नहीं जानता
किसके पास
कितने कपड़े हैं
परेशान हैं माँ-बाप
अपने घर के सुख-दुःख
उनसे कैसे छुपायें
एक साथ
उदास होते हैं वे
एक साथ
चमकती है
उनके चेहरों पर खुशी
सबकी अपनी
एक अलग दुनिया है
फिर भी शामिल हैं वे
एक-दूसरे की दुनिया में.

Saturday, June 12, 2010

रुपसिंह मिस्त्री

बहुत प्यार और पसीने से
उसने बनाया है
यह शाला भवन
उसका नाम भी लिखा हुआ है
संगमरमर के एक छोटे-से टुकड़े पर -
रूपसिंह मिस्त्री
लाल पठार, बासौदा
सोचता हूँ मैं
अगर होता शाहजहाँ
तो ज़रूर पूछता
उस गुस्ताख़ का नाम
जिसने संगमरमर पर
खुदवाया है
इस कारीगर का नाम
संगीन ज़ुर्म है यह -
चीखता शहंशाह
सरासर तौहीन है यह
मुगलिया सल्तनत की
कहीं कारीगरों के नाम
खोदे जाते हैं पत्थरों पर
उदाहरण देता वह ताजमहल का
और गुस्से से पगला जाता
शायद हुक्म सुना देता
जय नारायण मेहता को सूली पर लटकाने का -
शायद एक मौका देता पंडित जी को
अपनी सफाई में कुछ कहने का
हो सकता है
अपनी भाषा में
उसे समझाते पंडित जी -
यह ताजमहल नहीं है जहाँपनाह
और हो भी नहीं सकता
ईंट, सीमेंट, कंक्रीट और पसीने से बना
यह लड़कियों का स्कूल है
जिसमें पढ़ती हैं
सैकड़ों मुमताज -
हो सकता है
मुमताज का नाम सुनकर
शांत हो जाता गुस्सा
और सपनों में खो जाता शाहजहाँ
हो सकता है
सही-सलामत लौट आते पंडित जी
और दरबार का यह किस्सा
सुनाते अपनी छात्राओं को
और इस किस्से पर
खूब खिलखिलाती लड़कियाँ
हो सकता है
उनकी हँसी के साथ
बिखर जाते कक्षा में
सैकड़ों सपने.

(बड़े भाई जयनारायण मेहता के लिए)

Sunday, June 6, 2010

गिरगिट

रंग बदल रहा है
गिरगिट
पेड़ पर बैठा हुआ
जबड़ों से ज्यादा खतरनाक हैं
उसके रंग
हरे पत्तों के बीच
एकदम हरियल हो जाता है
जमीन तक आते-आते
एकदम भूरा
पेट भर चुका है उसका
घर लौट रहा है गिरगिट
शाम के पाँच बजे हैं अभी
पता नहीं
किस रंग में
प्यार करेगा अपनी मादा को
पता नहीं किस रंग में
चूमेगा अपने बच्चों को
जाने
किस रंग में
घर
लौट रहा है गिरगिट.