Monday, August 2, 2010

दो साध्वियाँ

मंदिर की छत पर
टहल रही हैं
दो साध्वियाँ
सफेद वस्त्र पहने हुए
अभी-अभी उतरी हों
जैसे आसमान से दो परियाँ
आपस में बतिया रही हैं
हँस भी रही हैं
पता नहीं किस बात पर
और फिर देखने लगती हैं
आसमान की तरफ
और एकदम खामोश हो जाती हैं
आसमान में तैरते हुए
बादल के टुकड़े भी
बड़े अजीब होते हैं
मन कल्पना करता है
और ये बादल
ठीक वैसे ही दिखने लगते हैं
छत पर टहलती हुई
ये साध्वियाँ
पता नहीं कौन-सा आकार
तराश रही हैं
कौन-सा गुम चेहरा
तलाश रही हैं इस वक्त
नीले आसमान को देखते हुए
जाने कौन-सी स्मृति
उनके जेहन में
चली आई है अचानक
अपनी माँ या बहन की ज़रीदार आसमानी साड़ी
छोटे भाई या पिता की कोई शर्ट
अपनी ही कोई आसमानी फ्रॉक
या फिर
नीली आँखों वाली
बचपन की वह गुड़िया
जिसकी शादी
लगभग रोज़ ही रचाई जाती थी
नीली आँखों वाली वह गुड़िया
शायद अब भी सुरक्षित रखी हो
घर की किसी अलमारी में
इस रंग के साथ जुड़ी हुई
ढेर स्मृतियों में से
पता नहीं
कौन-सी स्मृति
उनके साथ-साथ
टहल रही है
इस वक्त छत पर.

Thursday, July 29, 2010

सब्ज़ी मंडी के बहाने

इस मँहगाई के ज़माने में
कुछ चीजें
बहुत सस्ती बिक रही हैं
यदि खरीदने के गुर आते हों तुम्हें
मसलन सब्जी-
यदि वह फुटपाथ पर बिक रही हो
और तुम्हारे पैने नाखून
लौकियों के भाव पर उतारू हो जायें
ज़रा-सी पैनी निगाहें हो तुम्हारी
तो घर जाने की जल्दी में बैठी हुई
कोई भी बूढ़ी औरत
अपने टमाटरों का आखिरी ढेर
जबरन डाल देगी
तुम्हारे रंगीन थैले में
फुटपाथ पर बिकती हुई चीजों के बीच
खाली थैला लिए
निरपेक्ष भाव से
निकल कर तो देखो एक बार
तुम्हारे भाव करने की औकात से भी
कहीं कम भाव में
चीजें मिल जायेंगी तुम्हें
क्योंकि इस मंडी में
चीजों का बिकना
एक मजबूरी है
और खरीदना शातिरपन.

Monday, July 26, 2010

शुद्ध घी के बहाने

ठेठ देहात से आया है
एक देहाती
शहर में शुद्ध घी बेचने
भीड़ जुटी हुई है
उसके इर्द-गिर्द
तरह-तरह से
उसके घी को परख रहे हैं लोग
सवाल कर रहे हैं
तरह-तरह के
हर सवाल के जवाब में
एक ही बात कह रहा है देहाती
घर का घी है बाबू जी
मजबूरी है
इसलिए बेच रहा हूँ
वरना हमारे घर में
दूध-घी बेचा नहीं जाता
कटघरे में खड़े
बेगुनाह आदमी की तरह
बार-बारएक ही बात
दोहरा रहा है देहाती
गाँव से चलते वक्त
उसने नहीं सोचा होगा
कि इतना कठिन होगा
शहर में शुद्ध घी बेचना
किसी को यकीन नहीं आ रहा
उसकी बात पर
यकीन आये भी तो कैसे
मिलावट की इस दुनिया में
यकीन उस डालडा का नाम है
जिसे खाते-खाते
लोग शुद्ध घी की
पहचान तक भूल गये हैं.

Thursday, July 22, 2010

इतवार

सपनों तक
घुस आई है धूप
वक्त का पता नहीं
पर दिन-
यकीनन इतवार है.

Tuesday, July 20, 2010

सुख

बस उतनी देर ठहर पाते हैं
सुख अपने
छोटे-छोटे
किसी नन्हें-से
बच्चे के गालों पर
जितनी देर
ठहर पाते हैं
दो आँसू
मोटे-मोटे.

Monday, July 19, 2010

स्वप्न

आज भी स्वप्न देखती हैं लड़कियाँ
कि दूर देश से आयेंगे राजकुमार
घोड़ों पर बैठ करऔर बिठा कर ले जायेंगे उन्हें
दूर सितारों की दुनिया में
लड़कियाँ नहीं जानतीं
कि आजकल घोड़े
ताँगों में जुते हुए
हाँफ रहे हैं सड़कों पर
या फिर
दौड़ रहे हैं
रेस के मैदानों में
अपने राजकुमारों के लिए.

Friday, July 16, 2010

वैवाहिक विज्ञापन

कहानी की तरह होते हैं
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होतें हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते हुए सुअर के बच्चों को
लिफाफा खुलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.

Wednesday, July 14, 2010

प्रेम

लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो बस प्रेम करती हैं
रुक-सा जाता है वक्त
उनकी ज़ुल्फों में उलझ कर
और सपने
हो जाते हैं उनके गुलाम
नाम कुछ भी रहा हो उनका
लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो महारानी हो जाती हैं.

Saturday, July 10, 2010

प्रेम - एक

बस अभी आता हूँ
तुम्हारे पास
ज़रा दरवाज़े तक
छोड़ आऊँ
अपनी तन्हाई.

प्रेम - दो

तुम्हारे आने
और न आने के बीच
जो संभावना है
शायद प्रतीक्षा है

प्रेम - तीन

अब जब कि तुम
आ गई हो
ज़िन्दगी में
तो लगता है
तुम्हारी ही
तलाश थी मुझे.

प्रेम - चार

घर की
हरेक चीज़ में
शामिल हो गया है
तेरा वज़ूद
वरना चीजों को
बेजान होने में
वक्त ही कितना लगता है.

प्रेम - पाँच

रिश्तों की भीड़ से निकल कर
आया हूँ तेरे पास
अब न पीछे जाने का सवाल है
न आगे जाने की इच्छा
आओ
इन दोनों बिंदुओं के बीच
कहीं बैठ कर
प्यार करें.

Sunday, July 4, 2010

मनी-प्लांट

न खाद न मिट्टी
न सूरज की रोशनी
पानी से भरी हुई
एक बॉटल काफी है
इसे लगाने के लिए
तुम्हारी ज़रा-सी देखभाल
पूरे कमरे में फैला देगी इसे
इसके मासूम हरे पत्ते
चूमने लगेंगे
तस्वीरों में कैद चेहरे
बातें करने लगेंगे
कमरे की बेजान चीज़ों से
मुझे नहीं मालूम
इस लता का बॉटनीकल नाम
पर मैने इसे
अपना एक नाम दिया है 'सपना'.

Friday, July 2, 2010

बैक बेंचर्स

एकदम अलग होते हैं
वे बच्चे
जो बैठते हैं
कक्षा की अंतिम बेंच पर
एक अलग दुनिया होती है उनकी
जैसे विश्व मानचित्र पर
तीसरी दुनिया
खूब डाँटते हैं इन्हें अध्यापक
थोड़ा-बहुत प्यार भी करते हैं
इनसे प्रश्न पूछते हुए
शायद थोड़ा डरते भी हैं
क्योंकि प्रश्न ज्यादा होते हैं इनके पास
और उत्तर कम-
किसी प्रश्न का उत्तर न दे पायें
तो अहं को चोट नहीं पहुँचती
और बता दें
तो उपलब्धि हो जाती है
पीछे बैठे हुए
तमाम दोस्तों की
खूब गोल मारते हैं
हॉकी और फुटबॉल में
खूब गोल मारते हैं
कक्षाओं से
किताबों में किसी का जी नहीं लगता
और सब के सब
नाराज़ रहते हैं
अपने-अपने घरों से
न इन्हें सवालों से डर लगता है
न इम्तहानों से
अपने अध्यापकों से ज्यादा जानते हैं
पाठ्यक्रम की असली औकात
हर साल
हैरान होते हैं अध्यापक
और हर साल
पास हो जाते हैं
पीछे बैठने वाले
सब के सब बदमाश.

Monday, June 28, 2010

पिता के लिए

कविता के भीतर
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.

Monday, June 21, 2010

दोस्तों के बहाने

एक बार मन में विचार आया
क्यों न बहुत पीछे रह जाने की पीड़ा
बहुत आगे निकल गये दोस्तों से कहूँ
शायद मन का बोझ
कुछ हल्का हो जाये
पर सवाल था
इन दोस्तों को
तलाशा कहाँ जाये
उनके घर, गली, मोहल्ले
आज भी याद हैं
पर पता नहीं
वे वहाँ अब रहते भी हैं या नहीं
पता नहीं
कौन रहता होगा
अब उन मकानों में
कोई नया ही मकान मालिक
कोई किरायेदार
या फिर
उनके ही अंधे माँ-बाप
एक अनजाना-सा भय
मन में समा गया अचानक
पता नहीं अब भी
पहचान जायें वे मेरी आवाज़
पता नहीं
वे मुझ से ही पूछने लगें
अपने बेटों के पते
पता नहीं
उनकी काँपती आवाज़ें
बढ़ा दें
मेरे मन का बोझ.

Friday, June 18, 2010

दोस्तों के बारे में

कौन समझ सका है
दोस्तों को
सिवाय दोस्तों के
आवारा छोकरों का एक झुण्ड
जो बेझिझक घुस जाता है
घरों में
जैसे हवा के साथ
घर में भरा जाते हैं
पीले पत्ते
कोई वक्त नहीं है
उनके आने का
सुबह, दोपहर, शाम या रात
कभी भी धमक जाते हैं
बिना दरवाज़ा खटखटाये
बहुत जल्दी में हुए
तो सड़क पर ही खड़े होकर
पुकारने लगते हैं
अपने दोस्तों को
उनके घर के नाम से
कुछ भी अलग नहीं है उनका
सब-कुछ अलग होते हुए भी
कपड़ों की
इतनी अदला-बदली होती है
आपस में
कि कोई नहीं जानता
किसके पास
कितने कपड़े हैं
परेशान हैं माँ-बाप
अपने घर के सुख-दुःख
उनसे कैसे छुपायें
एक साथ
उदास होते हैं वे
एक साथ
चमकती है
उनके चेहरों पर खुशी
सबकी अपनी
एक अलग दुनिया है
फिर भी शामिल हैं वे
एक-दूसरे की दुनिया में.

Saturday, June 12, 2010

रुपसिंह मिस्त्री

बहुत प्यार और पसीने से
उसने बनाया है
यह शाला भवन
उसका नाम भी लिखा हुआ है
संगमरमर के एक छोटे-से टुकड़े पर -
रूपसिंह मिस्त्री
लाल पठार, बासौदा
सोचता हूँ मैं
अगर होता शाहजहाँ
तो ज़रूर पूछता
उस गुस्ताख़ का नाम
जिसने संगमरमर पर
खुदवाया है
इस कारीगर का नाम
संगीन ज़ुर्म है यह -
चीखता शहंशाह
सरासर तौहीन है यह
मुगलिया सल्तनत की
कहीं कारीगरों के नाम
खोदे जाते हैं पत्थरों पर
उदाहरण देता वह ताजमहल का
और गुस्से से पगला जाता
शायद हुक्म सुना देता
जय नारायण मेहता को सूली पर लटकाने का -
शायद एक मौका देता पंडित जी को
अपनी सफाई में कुछ कहने का
हो सकता है
अपनी भाषा में
उसे समझाते पंडित जी -
यह ताजमहल नहीं है जहाँपनाह
और हो भी नहीं सकता
ईंट, सीमेंट, कंक्रीट और पसीने से बना
यह लड़कियों का स्कूल है
जिसमें पढ़ती हैं
सैकड़ों मुमताज -
हो सकता है
मुमताज का नाम सुनकर
शांत हो जाता गुस्सा
और सपनों में खो जाता शाहजहाँ
हो सकता है
सही-सलामत लौट आते पंडित जी
और दरबार का यह किस्सा
सुनाते अपनी छात्राओं को
और इस किस्से पर
खूब खिलखिलाती लड़कियाँ
हो सकता है
उनकी हँसी के साथ
बिखर जाते कक्षा में
सैकड़ों सपने.

(बड़े भाई जयनारायण मेहता के लिए)

Sunday, June 6, 2010

गिरगिट

रंग बदल रहा है
गिरगिट
पेड़ पर बैठा हुआ
जबड़ों से ज्यादा खतरनाक हैं
उसके रंग
हरे पत्तों के बीच
एकदम हरियल हो जाता है
जमीन तक आते-आते
एकदम भूरा
पेट भर चुका है उसका
घर लौट रहा है गिरगिट
शाम के पाँच बजे हैं अभी
पता नहीं
किस रंग में
प्यार करेगा अपनी मादा को
पता नहीं किस रंग में
चूमेगा अपने बच्चों को
जाने
किस रंग में
घर
लौट रहा है गिरगिट.

Friday, May 21, 2010

खोटा सिक्का

एक दिन मित्रों ने घोषित कर दिया
ईश्वर को खोटा सिक्का
दूसरे ही दिन
दुश्मनों ने
उसे बाजार में चला दिया
घूमता रहा सिक्का बाज़ार में
और फिर लौटा एक दिन
मित्रों के पास
बदरंग और घिसा-पिटा
एकदम खोटे सिक्के की तरह

Wednesday, May 19, 2010

खूबसूरत घर

एक ख़ूबसूरत घर है
घर के सामने
हरा-भरा लॉन है
कुछ दरख़्त हैं आस-पास
रंग-बिरंगे फूल हैं
क्यारियों में खिले हुए

एक ख़ूबसूरत घर है
कमरे की दीवार पर चिपके हुए
पोस्टर में

इस बार भी दिवाली पर
सम्हल कर पोतनी होगी दीवार
पिछली बार की तरह.

Friday, May 14, 2010

बारिश - एक

एक दिन बारिश में

भीगते हुए जाना

घर का मतलब

घर नहीं होता होगा जिनके पास

वे क्या सोचते होंगे

बारिश के बारे में.

बारिश - दो

रेनकोट पहने हुए यह आदमी

बारिश को रोकने निकला है

हटाओ इसे सड़क से

बंद कर दो इसे

किसी मकान के भीतर

जब तबियत से बरस ले पानी

तब खोल देना-

दरवाज़े की कुंडी.

Thursday, May 13, 2010

समझौता

रोज़ सुबह आता है दूधवाला

और पानी मिला दूध

जग में डालकर चला जाता है

रोज़ डाँटता हूँ उसे

धमकी देता हूँ दूध बंद देने की

मुस्कुराता है दूधवाला

और रोज़ की तरह

साइकिल की घंटी बजाते हुए

आगे निकल जाता है

रोज़ शुरु होता है दिन

इस छोटे-से

समझौते के साथ.

Tuesday, May 4, 2010

यात्रा के दौरान

इस बार
पूरे सफर के दौरान
मैने एक भी कविता नहीं लिखी
एक मासूम ज़िद्दी बच्चे ने
छीन ली मुझसे
मेरी खिड़की वाली सीट
और फिर मैं
पूरे रास्ते देखता रहा
उसकी आँखों में
नदी, पुल, पहाड़
और
भागते हुए पेड़ों के प्रतिबिंब.

Saturday, May 1, 2010

घर : एक

छुट्टियों का
सबसे पहला दिन
सबसे पहली बस
सबसे आगे वाली सीट
सबसे पहले कहाँ
सबसे पहले घर.

घर : दो

अपने घर से
मीलों दूर
इस अजनबी शहर में
दस बाई बारह का
यह कमरा
कभी-कभी
रेल के डिब्बे में
तब्दील हो जाता है
आधी रात के बाद
और भागने लगता है
घर की तरफ़.

घर

चलो छोड़ दिया घर
आ गए परदेस में
अब !
यहाँ भी तो तलाशना होगा
एक घर.

Wednesday, April 28, 2010

अस्पताल

परियों की तरह

हवा में उड़ रही हैं

परिचारिकाएँ

देवताओं की तरह

लग रहे हैं चिकित्सक

विज्ञान और प्रार्थना

स्वर्ग और नर्क

निश्चय और अनिश्चय के बीच

झूल रहा है

धरती का यह छोटा-सा टुकड़ा.

रात

दिन

उतार फेंका है उसने

अपने कंधों से

रात

उतर आई है

मेरी बाँहों में.

Wednesday, April 21, 2010

सरकारी आदमी

गेहूँ के उस हरे-भरे खेत में
ऐसे खड़े हुए हैं
टेलीफोन के खम्भे
जैसे अभी से
आ धमके हों
कर्ज़ा वसूलने
सरकारी आदमी.

Sunday, April 18, 2010

बारिश

मोरों ने
पुकारा मेघों को
और झमाझम
बरसने लगा पानी
मेंढक तो
बहुत बाद में टर्राये.

पतझर

एक-एक कर
सारे पत्ते
झड़ गये हैं
एक घोंसला
अब भी चिपका है
पेड़ की छाती से.

Friday, April 16, 2010

आईना

आईने में
कुछ नहीं है
सिवा अपने
आईने के
उस तरफ
सब हैं
माँ-बाप
भाई-बहन
यार-दोस्त
और प्रेमिकाएँ
सब.

Thursday, April 15, 2010

बचपन : एक

जहाँ-जहाँ भी रहे
किराये के मकानों में
वहाँ-वहाँ छूटता गया
घर के कबाड़ के साथ-साथ
कुछ न कुछ महत्वपूर्ण
कुछ यादें, कुछ लोग
कुछ बचपन
सब पीछे छूट गया
अब तो सिर्फ
ज़रूरी सामान ही बचा है
घर के मकान में.

बचपन : दो

एक ज़िद था
बचपन
जिसे कोई पूरी न कर सका

पता

सुख ने जाते-जाते
दुःख को
मेरा पता बता दिया
गली, मौहल्ला, शहर
साले ने
पक्का पता दिया.

Wednesday, April 14, 2010

कविता

धूप की तरह आओ
मेरे घर में
पानी की तरह
चू जाओ कहीं से भी
हवा की तरह
दरवाज़ा खटखटा कर आओ
पीले पत्तों की तरह
भरा जाओ घर में
सपने की तरह चली आओ
दबे पाँव नींद में
दुःख की तरह आओ
कभी न जाने के लिए
या खुशी की तरह
धमक जाओ अचानक
दिन भर के काम से निबट कर
रात
जिस तरह आती है पत्नी
इस तरह आओ
जाग रहा हूँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में
चाहे जिस तरह आओ.

Tuesday, April 13, 2010

नाखून : एक

कितने भी सलीके से काटे जायें
नाखून
खूबसूरत नहीं होते
खूबसूरत तो सिर्फ
चेहरे होते हैं
लहुलुहान होने से पहले
और कई अर्थों में
लहुलुहान होने के बाद भी.

नाखून : दो

अपने चेहरे से
टपकते खून को पोंछते हुए
लोगों ने
एक-दूसरे से कहा
नाखून-
बहस का विषय नहीं है.

दंगे

घर के भीतर
मारा गया विश्वास
गली के मोड़ पर
मारी गई यारी
गाँव, कस्बे, शहर, महानगर
सब मारे गये
और इन सबके साथ
मारा गया मुल्क.

Monday, April 12, 2010

दीवार

एक दिन वे आयेंगे
और लिख जायेंगे
तुम्हारी दीवार पर
तुम्हारे पड़ौसी की मौत का फरमान
दूसरे दिन वे आयेंगे
लिख जायेंगे
पड़ौसी की दीवार पर
तुम्हारी मौत का फरमान
तीसरे दिन
वे फिर आयेंगे
और लिख जायेंगे
शहर की तमाम दीवारों पर
ऐसे ही फरमान-
उन्हें सिर्फ तीन दिन चाहिए
इस दुनिया को
श्मशान में बदलने के लिए.

कौन जायेगा अगली शताब्दी में...?

सिर्फ प्रेमिकाएँ जायेंगी
अगली शताब्दी में
पत्नियाँ इसी तरफ
इंतज़ार करेंगी
हाथों में रंगीन गुब्बारे लिए
कवि जायेंगे
अगली शताब्दी में
बधाई गीत गाते हुए
कविता इसी तरफ
इंतज़ार करेगी
विज्ञान जायेगा
तकनीक जायेगी
बड़े-बड़े अधिकारी
और चिकित्सक जायेंगे
बुखार से तपते हुए मरीज़
इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे
कौन जायेगा
अगली शताब्दी में
बेशर्म, गंदे, नीच
ठसक से भरे हुए
जवाब जायेंगे
अगली शताब्दी में
सवाल इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे.

Thursday, March 25, 2010

पिता के जूते

बचपन की बात और थी
जब पिता के जूतों में पाँव डालकर
नचते फिरते थे घर भर में
दायें पैर का जूता बाएँ में और
बाएँ पैर का दाएँ में
कितना चिल्लाती थी माँ
पिता की मार भी खाई कई बार
जब एक जूता आँगन में
और दूसरा बैठक में मिला
एक अजीब सा आकर्षण था
पिता के जूतों में
गिरना, पड़ना, चलना सब सीखा
इन्हीं जूतों के सहारे
पर ये सब बचपन की बातें हैं
अब कहाँ इतनी हिम्मत
कि डालूँ पिता के जूतों में अपने पाँव
चलना सीख चुका हूँ इसलिए
या फिर चल न सकूँगा इन्हें पहनकर इसलिए
डरता हूँ
बरसों पुरानी कोई जंग खाई कील
या अन्दर छुपे किसी काँटे से
या शायद डरता हूँ
मीलों लम्बी उस थकान से
जो अँधेरे की चादर ओढे़
आराम से पसरी है
जूतों की सुरंग के भीतर
बचपन की बात कुछ और थी.

रोशनी

इस रोशनी में
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने चाक पर गीली मिट्टी रख कर
आकार दिया है इस दीपक का
इस रोशनी में थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने उगाया है कपास
तुम्हारी बाती के लिए
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी
जिसके पसीने से बना है तेल
इस रोशनी में
थोड़ा सा हिस्सा
उस अँधेरे का भी है
जो दिये के नीचे
पसरा है चुपचाप

जुलूस

कई बरस बाद सड़क पर देखा
इतना बड़ा जुलूस
वरना इन दिनों तो
परिदृश्य से बाहर हैं
ऐसे दृश्य
जीन्स-टी शर्ट पहने लड़के-लड़कियाँ
हाथों में पोस्टर
अँग्रेज़ी में लिखे हुए नारे
हँसते, मुस्कराते, बतियाते
पहली बार निकले हैं
इस तरह सड़कों पर
नथुनों से टकराती है
परफ्यूम और डिओडरेन्टस की गंध
कितना खुशबूदार जुलूस है यह
रंग खुशबू और जवानी
मैं देखता हूँ इस जुलूस को
बेहद करीब से
सोचता हूँ शामिल हो जाऊँ इसमें
फिर सोचता हूँ नहीं
अपने पसीने की गंध से
पहचान लिया जाऊँगा
जुलूस नहीं है यह
यह तो
किसी औद्योगिक घराने की बारात है.

Tuesday, March 23, 2010

टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ

कितना उबाऊ, नीरस, बेजान
और बदबूदार हो गया है
सब-कुछ
जीवन के हर सुंदर दृश्य में
घुस आया है
खजिया कुत्तों का एक झुंड
दुम दबा कर भाग रही हैं
अन्तर-आत्माएँ
शांति की तलाश में-
फेशियल कराने
निकला है सौंदर्य बोध
थ्रेडिंग के इंतज़ार में
बैठी है आत्मा
मंच पर इठलाती सुन्दरियाँ
मदर टेरेसा बनना चाहती हैं
ताजपोशी के बाद
कतारें लगी हैं
स्टेडियम के बाहर
अंदर नाच रहे हैं
माइकल जैक्सन
स्कूलों से गायब हैं बच्चे
चौपालों से गायब हैं बूढ़े
खेत-खलिहान और घरों के आँगन से
गायब हैं औरतें
पूरी की पूरी एक बस्ती
लगी हुई है
घासलेट की लाइन में
दीवारों पर चस्पा हैं
साक्षरता और महिला-समृद्धि योजनाओं के
फटे हुए पोस्टर्स –
पोस्टमार्टम की टेबल पर लेटे हुए मुर्दे से
फीस माँग रहे हैं डॉक्टर
अधिकतम ऊँचाई पर गया है
हमारा चिकित्सा विज्ञान
मरीज़ों के पेट में
छूट रहे हैं
डॉक्टरों के चश्मे, घड़ियाँ, दस्ताने और प्रेमपत्र
एक दिन भूल से चली जाती है नैतिकता
मरीज के पेट में रखी हुई
परेशान है पूरा चिकित्सा विभाग
कि नैतिकता
कोई कैंची या घड़ी तो है नहीं
जो सुरक्षित हो अब तक
मरीज़ के पाखाने के साथ-साथ
वह भी बाहर निकल गई होगी अब तक
और किसी सूअर के पेट की
शोभा बढ़ा रही होगी –
चारों तरफ बिखरी हुई है विष्ठा
चारों तरफ
बिखरी हुई हैं नैतिकताएँ
अलग-अलग पेशों की नैतिकताएँ
धर्म
राजनीति
और
कला
रेशे-रेशे की नैतिकताएँ
सूअर घूम रहे हैं
चारों तरफ
विष्ठा में लिपटे हुए हैं उनके मुँह
और पेट में लेटी हुई हैं
हमारी नैतिकताएँ
एक अजीब-सी बू
फैली हुई है चारों तरफ
एक अजीब-सा शोर
एक अजीब-सा सन्नाटा
एक अजीब-सा अवसाद
एक अजीब-सी दहशत
एक अजीब-सी निष्क्रियता
उतर रही है
धीरे-धीरे
शिराओं में.

Monday, March 22, 2010

बाज़ार : एक

पैर नहीं थकते
आँखें थक जाती हैं
इस बाज़ार में
बच्चे की तरह उँगली पकड़कर
साथ चलते हैं सपने
और फिर गुम जाते हैं
रंग-बिरंगी खुश्बूदार भीड़ में
मैं सपने तलाशता हूँ
इस बाज़ार में
और फिर-
पैर भी थक जाते हैं.

बाज़ार : दो

पसीने की गंध मिटाने के लिए
जिसे वे दुर्गंध कहते हैं
कितनी सारी चीजें बिक रही हैं
इस बाज़ार में
तरह-तरह के खुश्बूदार साबुन
स्प्रे, पॉवडर और डिओडरेन्ट्स
मनुष्य के पसीने के पीछे
पड़ा हुआ है पूरा बाज़ार
कुछ न कुछ तो
खरीदना ही होगा भाई साहब
इस तरह नहीं घूम सकते
आप इस धरती पर
पसीने से गंधियाते.