Monday, July 19, 2010
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भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद के चलते हमारे समय में कविता बहुत हद तक नगरीय बल्कि महानगरीय अनुभवों और दृश्यों पर केंद्रित होती सी जान पड़ती है. कविता का अन्तःकरण सीमित हुआ है. कविता में गाँवों और कस्बों के एक वृहत जीवन को लगभग अदेखा किया जा रहा है. मणिमोहन की कविता कस्बों के जीवन को अपनी विषय वस्तु बनाती है. कस्बों के निम्नमध्यमवर्ग के अन्तःकरण को टटोलने, उसके अंधेरे कोनों कतरों में झाँकने और कई बार उनसे छेड़-छाड़ करने की कोशिश भी करती है. इसकी व्यग्रताएँ, स्वप्न, इच्छाएँ और द्वन्द्व हमारे कस्बों के समाज का प्रतिफलन है. उसकी स्थानीयता ब्यौरों में नहीं, कहन की भंगिमा में अन्तर्निहित है. लेकिन इसे अलक्ष्य नहीं किया जाना चाहिए कि कस्बे ने उसके अंतःकरण को रचा है पर वह उसकी सीमा नहीं है. इन कविताओं की नज़र हमारे समय की विडंबना पर है. उसमें एक खास किस्म का कौतुक का भाव है, विट भी और वाक्य रचना में चुस्ती भी. उसका गुस्सा भी तिर्यक है और मुस्कुराहट भी. वह अतिरिक्त शब्दों और क्रियाओं को अपने पास फटकने की गुंजाइश नहीं बख्शती. यह अचरज और कौतुक का खेल ही मणि की कविता को अपने समकालीनों से कुछ भिन्न बनाता है. इन कविताओं के सामाजिक, राजनैतिक सरोकारों को तो बहुत स्पष्ट रूप से लक्ष्य किया जा सकता है, उनकी प्रतिबद्धता की भी निशानदेही की जा सकती है. यह कविताएँ 'कम लिखी अधिक समझना' जैसे मुहावरे को चरितार्थ करती सी जान पड़ती हैं. - राजेश जोशी
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