Monday, June 28, 2010
पिता के लिए
कविता के भीतर
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.
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4 comments:
माँ...
शब्द ही महाकव्य है!!
... बहुत सुन्दर ... प्रसंशनीय रचना!!!
कविता के भीतर
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता...
बहुत सुन्दर .
Father is very magnanimous. he won't mind
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