Saturday, June 12, 2010

रुपसिंह मिस्त्री

बहुत प्यार और पसीने से
उसने बनाया है
यह शाला भवन
उसका नाम भी लिखा हुआ है
संगमरमर के एक छोटे-से टुकड़े पर -
रूपसिंह मिस्त्री
लाल पठार, बासौदा
सोचता हूँ मैं
अगर होता शाहजहाँ
तो ज़रूर पूछता
उस गुस्ताख़ का नाम
जिसने संगमरमर पर
खुदवाया है
इस कारीगर का नाम
संगीन ज़ुर्म है यह -
चीखता शहंशाह
सरासर तौहीन है यह
मुगलिया सल्तनत की
कहीं कारीगरों के नाम
खोदे जाते हैं पत्थरों पर
उदाहरण देता वह ताजमहल का
और गुस्से से पगला जाता
शायद हुक्म सुना देता
जय नारायण मेहता को सूली पर लटकाने का -
शायद एक मौका देता पंडित जी को
अपनी सफाई में कुछ कहने का
हो सकता है
अपनी भाषा में
उसे समझाते पंडित जी -
यह ताजमहल नहीं है जहाँपनाह
और हो भी नहीं सकता
ईंट, सीमेंट, कंक्रीट और पसीने से बना
यह लड़कियों का स्कूल है
जिसमें पढ़ती हैं
सैकड़ों मुमताज -
हो सकता है
मुमताज का नाम सुनकर
शांत हो जाता गुस्सा
और सपनों में खो जाता शाहजहाँ
हो सकता है
सही-सलामत लौट आते पंडित जी
और दरबार का यह किस्सा
सुनाते अपनी छात्राओं को
और इस किस्से पर
खूब खिलखिलाती लड़कियाँ
हो सकता है
उनकी हँसी के साथ
बिखर जाते कक्षा में
सैकड़ों सपने.

(बड़े भाई जयनारायण मेहता के लिए)

4 comments:

दिलीप said...

bahut sundar rachna

कडुवासच said...

...प्रसंशनीय रचना!!!

Anonymous said...

beautiful poem.......................

aarkay said...

bhav vibhor kar dene wali ati sundar rachna