Thursday, July 29, 2010

सब्ज़ी मंडी के बहाने

इस मँहगाई के ज़माने में
कुछ चीजें
बहुत सस्ती बिक रही हैं
यदि खरीदने के गुर आते हों तुम्हें
मसलन सब्जी-
यदि वह फुटपाथ पर बिक रही हो
और तुम्हारे पैने नाखून
लौकियों के भाव पर उतारू हो जायें
ज़रा-सी पैनी निगाहें हो तुम्हारी
तो घर जाने की जल्दी में बैठी हुई
कोई भी बूढ़ी औरत
अपने टमाटरों का आखिरी ढेर
जबरन डाल देगी
तुम्हारे रंगीन थैले में
फुटपाथ पर बिकती हुई चीजों के बीच
खाली थैला लिए
निरपेक्ष भाव से
निकल कर तो देखो एक बार
तुम्हारे भाव करने की औकात से भी
कहीं कम भाव में
चीजें मिल जायेंगी तुम्हें
क्योंकि इस मंडी में
चीजों का बिकना
एक मजबूरी है
और खरीदना शातिरपन.

Monday, July 26, 2010

शुद्ध घी के बहाने

ठेठ देहात से आया है
एक देहाती
शहर में शुद्ध घी बेचने
भीड़ जुटी हुई है
उसके इर्द-गिर्द
तरह-तरह से
उसके घी को परख रहे हैं लोग
सवाल कर रहे हैं
तरह-तरह के
हर सवाल के जवाब में
एक ही बात कह रहा है देहाती
घर का घी है बाबू जी
मजबूरी है
इसलिए बेच रहा हूँ
वरना हमारे घर में
दूध-घी बेचा नहीं जाता
कटघरे में खड़े
बेगुनाह आदमी की तरह
बार-बारएक ही बात
दोहरा रहा है देहाती
गाँव से चलते वक्त
उसने नहीं सोचा होगा
कि इतना कठिन होगा
शहर में शुद्ध घी बेचना
किसी को यकीन नहीं आ रहा
उसकी बात पर
यकीन आये भी तो कैसे
मिलावट की इस दुनिया में
यकीन उस डालडा का नाम है
जिसे खाते-खाते
लोग शुद्ध घी की
पहचान तक भूल गये हैं.

Thursday, July 22, 2010

इतवार

सपनों तक
घुस आई है धूप
वक्त का पता नहीं
पर दिन-
यकीनन इतवार है.

Tuesday, July 20, 2010

सुख

बस उतनी देर ठहर पाते हैं
सुख अपने
छोटे-छोटे
किसी नन्हें-से
बच्चे के गालों पर
जितनी देर
ठहर पाते हैं
दो आँसू
मोटे-मोटे.

Monday, July 19, 2010

स्वप्न

आज भी स्वप्न देखती हैं लड़कियाँ
कि दूर देश से आयेंगे राजकुमार
घोड़ों पर बैठ करऔर बिठा कर ले जायेंगे उन्हें
दूर सितारों की दुनिया में
लड़कियाँ नहीं जानतीं
कि आजकल घोड़े
ताँगों में जुते हुए
हाँफ रहे हैं सड़कों पर
या फिर
दौड़ रहे हैं
रेस के मैदानों में
अपने राजकुमारों के लिए.

Friday, July 16, 2010

वैवाहिक विज्ञापन

कहानी की तरह होते हैं
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होतें हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते हुए सुअर के बच्चों को
लिफाफा खुलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.

Wednesday, July 14, 2010

प्रेम

लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो बस प्रेम करती हैं
रुक-सा जाता है वक्त
उनकी ज़ुल्फों में उलझ कर
और सपने
हो जाते हैं उनके गुलाम
नाम कुछ भी रहा हो उनका
लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो महारानी हो जाती हैं.

Saturday, July 10, 2010

प्रेम - एक

बस अभी आता हूँ
तुम्हारे पास
ज़रा दरवाज़े तक
छोड़ आऊँ
अपनी तन्हाई.

प्रेम - दो

तुम्हारे आने
और न आने के बीच
जो संभावना है
शायद प्रतीक्षा है

प्रेम - तीन

अब जब कि तुम
आ गई हो
ज़िन्दगी में
तो लगता है
तुम्हारी ही
तलाश थी मुझे.

प्रेम - चार

घर की
हरेक चीज़ में
शामिल हो गया है
तेरा वज़ूद
वरना चीजों को
बेजान होने में
वक्त ही कितना लगता है.

प्रेम - पाँच

रिश्तों की भीड़ से निकल कर
आया हूँ तेरे पास
अब न पीछे जाने का सवाल है
न आगे जाने की इच्छा
आओ
इन दोनों बिंदुओं के बीच
कहीं बैठ कर
प्यार करें.

Sunday, July 4, 2010

मनी-प्लांट

न खाद न मिट्टी
न सूरज की रोशनी
पानी से भरी हुई
एक बॉटल काफी है
इसे लगाने के लिए
तुम्हारी ज़रा-सी देखभाल
पूरे कमरे में फैला देगी इसे
इसके मासूम हरे पत्ते
चूमने लगेंगे
तस्वीरों में कैद चेहरे
बातें करने लगेंगे
कमरे की बेजान चीज़ों से
मुझे नहीं मालूम
इस लता का बॉटनीकल नाम
पर मैने इसे
अपना एक नाम दिया है 'सपना'.

Friday, July 2, 2010

बैक बेंचर्स

एकदम अलग होते हैं
वे बच्चे
जो बैठते हैं
कक्षा की अंतिम बेंच पर
एक अलग दुनिया होती है उनकी
जैसे विश्व मानचित्र पर
तीसरी दुनिया
खूब डाँटते हैं इन्हें अध्यापक
थोड़ा-बहुत प्यार भी करते हैं
इनसे प्रश्न पूछते हुए
शायद थोड़ा डरते भी हैं
क्योंकि प्रश्न ज्यादा होते हैं इनके पास
और उत्तर कम-
किसी प्रश्न का उत्तर न दे पायें
तो अहं को चोट नहीं पहुँचती
और बता दें
तो उपलब्धि हो जाती है
पीछे बैठे हुए
तमाम दोस्तों की
खूब गोल मारते हैं
हॉकी और फुटबॉल में
खूब गोल मारते हैं
कक्षाओं से
किताबों में किसी का जी नहीं लगता
और सब के सब
नाराज़ रहते हैं
अपने-अपने घरों से
न इन्हें सवालों से डर लगता है
न इम्तहानों से
अपने अध्यापकों से ज्यादा जानते हैं
पाठ्यक्रम की असली औकात
हर साल
हैरान होते हैं अध्यापक
और हर साल
पास हो जाते हैं
पीछे बैठने वाले
सब के सब बदमाश.