Monday, August 2, 2010
दो साध्वियाँ
मंदिर की छत पर
टहल रही हैं
दो साध्वियाँ
सफेद वस्त्र पहने हुए
अभी-अभी उतरी हों
जैसे आसमान से दो परियाँ
आपस में बतिया रही हैं
हँस भी रही हैं
पता नहीं किस बात पर
और फिर देखने लगती हैं
आसमान की तरफ
और एकदम खामोश हो जाती हैं
आसमान में तैरते हुए
बादल के टुकड़े भी
बड़े अजीब होते हैं
मन कल्पना करता है
और ये बादल
ठीक वैसे ही दिखने लगते हैं
छत पर टहलती हुई
ये साध्वियाँ
पता नहीं कौन-सा आकार
तराश रही हैं
कौन-सा गुम चेहरा
तलाश रही हैं इस वक्त
नीले आसमान को देखते हुए
जाने कौन-सी स्मृति
उनके जेहन में
चली आई है अचानक
अपनी माँ या बहन की ज़रीदार आसमानी साड़ी
छोटे भाई या पिता की कोई शर्ट
अपनी ही कोई आसमानी फ्रॉक
या फिर
नीली आँखों वाली
बचपन की वह गुड़िया
जिसकी शादी
लगभग रोज़ ही रचाई जाती थी
नीली आँखों वाली वह गुड़िया
शायद अब भी सुरक्षित रखी हो
घर की किसी अलमारी में
इस रंग के साथ जुड़ी हुई
ढेर स्मृतियों में से
पता नहीं
कौन-सी स्मृति
उनके साथ-साथ
टहल रही है
इस वक्त छत पर.
टहल रही हैं
दो साध्वियाँ
सफेद वस्त्र पहने हुए
अभी-अभी उतरी हों
जैसे आसमान से दो परियाँ
आपस में बतिया रही हैं
हँस भी रही हैं
पता नहीं किस बात पर
और फिर देखने लगती हैं
आसमान की तरफ
और एकदम खामोश हो जाती हैं
आसमान में तैरते हुए
बादल के टुकड़े भी
बड़े अजीब होते हैं
मन कल्पना करता है
और ये बादल
ठीक वैसे ही दिखने लगते हैं
छत पर टहलती हुई
ये साध्वियाँ
पता नहीं कौन-सा आकार
तराश रही हैं
कौन-सा गुम चेहरा
तलाश रही हैं इस वक्त
नीले आसमान को देखते हुए
जाने कौन-सी स्मृति
उनके जेहन में
चली आई है अचानक
अपनी माँ या बहन की ज़रीदार आसमानी साड़ी
छोटे भाई या पिता की कोई शर्ट
अपनी ही कोई आसमानी फ्रॉक
या फिर
नीली आँखों वाली
बचपन की वह गुड़िया
जिसकी शादी
लगभग रोज़ ही रचाई जाती थी
नीली आँखों वाली वह गुड़िया
शायद अब भी सुरक्षित रखी हो
घर की किसी अलमारी में
इस रंग के साथ जुड़ी हुई
ढेर स्मृतियों में से
पता नहीं
कौन-सी स्मृति
उनके साथ-साथ
टहल रही है
इस वक्त छत पर.
Thursday, July 29, 2010
सब्ज़ी मंडी के बहाने
इस मँहगाई के ज़माने में
कुछ चीजें
बहुत सस्ती बिक रही हैं
यदि खरीदने के गुर आते हों तुम्हें
मसलन सब्जी-
यदि वह फुटपाथ पर बिक रही हो
और तुम्हारे पैने नाखून
लौकियों के भाव पर उतारू हो जायें
ज़रा-सी पैनी निगाहें हो तुम्हारी
तो घर जाने की जल्दी में बैठी हुई
कोई भी बूढ़ी औरत
अपने टमाटरों का आखिरी ढेर
जबरन डाल देगी
तुम्हारे रंगीन थैले में
फुटपाथ पर बिकती हुई चीजों के बीच
खाली थैला लिए
निरपेक्ष भाव से
निकल कर तो देखो एक बार
तुम्हारे भाव करने की औकात से भी
कहीं कम भाव में
चीजें मिल जायेंगी तुम्हें
क्योंकि इस मंडी में
चीजों का बिकना
एक मजबूरी है
और खरीदना शातिरपन.
कुछ चीजें
बहुत सस्ती बिक रही हैं
यदि खरीदने के गुर आते हों तुम्हें
मसलन सब्जी-
यदि वह फुटपाथ पर बिक रही हो
और तुम्हारे पैने नाखून
लौकियों के भाव पर उतारू हो जायें
ज़रा-सी पैनी निगाहें हो तुम्हारी
तो घर जाने की जल्दी में बैठी हुई
कोई भी बूढ़ी औरत
अपने टमाटरों का आखिरी ढेर
जबरन डाल देगी
तुम्हारे रंगीन थैले में
फुटपाथ पर बिकती हुई चीजों के बीच
खाली थैला लिए
निरपेक्ष भाव से
निकल कर तो देखो एक बार
तुम्हारे भाव करने की औकात से भी
कहीं कम भाव में
चीजें मिल जायेंगी तुम्हें
क्योंकि इस मंडी में
चीजों का बिकना
एक मजबूरी है
और खरीदना शातिरपन.
Monday, July 26, 2010
शुद्ध घी के बहाने
ठेठ देहात से आया है
एक देहाती
शहर में शुद्ध घी बेचने
भीड़ जुटी हुई है
उसके इर्द-गिर्द
तरह-तरह से
उसके घी को परख रहे हैं लोग
सवाल कर रहे हैं
तरह-तरह के
हर सवाल के जवाब में
एक ही बात कह रहा है देहाती
घर का घी है बाबू जी
मजबूरी है
इसलिए बेच रहा हूँ
वरना हमारे घर में
दूध-घी बेचा नहीं जाता
कटघरे में खड़े
बेगुनाह आदमी की तरह
बार-बारएक ही बात
दोहरा रहा है देहाती
गाँव से चलते वक्त
उसने नहीं सोचा होगा
कि इतना कठिन होगा
शहर में शुद्ध घी बेचना
किसी को यकीन नहीं आ रहा
उसकी बात पर
यकीन आये भी तो कैसे
मिलावट की इस दुनिया में
यकीन उस डालडा का नाम है
जिसे खाते-खाते
लोग शुद्ध घी की
पहचान तक भूल गये हैं.
एक देहाती
शहर में शुद्ध घी बेचने
भीड़ जुटी हुई है
उसके इर्द-गिर्द
तरह-तरह से
उसके घी को परख रहे हैं लोग
सवाल कर रहे हैं
तरह-तरह के
हर सवाल के जवाब में
एक ही बात कह रहा है देहाती
घर का घी है बाबू जी
मजबूरी है
इसलिए बेच रहा हूँ
वरना हमारे घर में
दूध-घी बेचा नहीं जाता
कटघरे में खड़े
बेगुनाह आदमी की तरह
बार-बारएक ही बात
दोहरा रहा है देहाती
गाँव से चलते वक्त
उसने नहीं सोचा होगा
कि इतना कठिन होगा
शहर में शुद्ध घी बेचना
किसी को यकीन नहीं आ रहा
उसकी बात पर
यकीन आये भी तो कैसे
मिलावट की इस दुनिया में
यकीन उस डालडा का नाम है
जिसे खाते-खाते
लोग शुद्ध घी की
पहचान तक भूल गये हैं.
Thursday, July 22, 2010
Tuesday, July 20, 2010
सुख
बस उतनी देर ठहर पाते हैं
सुख अपने
छोटे-छोटे
किसी नन्हें-से
बच्चे के गालों पर
जितनी देर
ठहर पाते हैं
दो आँसू
मोटे-मोटे.
सुख अपने
छोटे-छोटे
किसी नन्हें-से
बच्चे के गालों पर
जितनी देर
ठहर पाते हैं
दो आँसू
मोटे-मोटे.
Monday, July 19, 2010
स्वप्न
आज भी स्वप्न देखती हैं लड़कियाँ
कि दूर देश से आयेंगे राजकुमार
घोड़ों पर बैठ करऔर बिठा कर ले जायेंगे उन्हें
दूर सितारों की दुनिया में
लड़कियाँ नहीं जानतीं
कि आजकल घोड़े
ताँगों में जुते हुए
हाँफ रहे हैं सड़कों पर
या फिर
दौड़ रहे हैं
रेस के मैदानों में
अपने राजकुमारों के लिए.
कि दूर देश से आयेंगे राजकुमार
घोड़ों पर बैठ करऔर बिठा कर ले जायेंगे उन्हें
दूर सितारों की दुनिया में
लड़कियाँ नहीं जानतीं
कि आजकल घोड़े
ताँगों में जुते हुए
हाँफ रहे हैं सड़कों पर
या फिर
दौड़ रहे हैं
रेस के मैदानों में
अपने राजकुमारों के लिए.
Friday, July 16, 2010
वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होते हैं
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होतें हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते हुए सुअर के बच्चों को
लिफाफा खुलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होतें हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते हुए सुअर के बच्चों को
लिफाफा खुलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.
Wednesday, July 14, 2010
प्रेम
लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो बस प्रेम करती हैं
रुक-सा जाता है वक्त
उनकी ज़ुल्फों में उलझ कर
और सपने
हो जाते हैं उनके गुलाम
नाम कुछ भी रहा हो उनका
लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो महारानी हो जाती हैं.
तो बस प्रेम करती हैं
रुक-सा जाता है वक्त
उनकी ज़ुल्फों में उलझ कर
और सपने
हो जाते हैं उनके गुलाम
नाम कुछ भी रहा हो उनका
लड़कियाँ जब प्रेम करती हैं
तो महारानी हो जाती हैं.
Saturday, July 10, 2010
प्रेम - चार
घर की
हरेक चीज़ में
शामिल हो गया है
तेरा वज़ूद
वरना चीजों को
बेजान होने में
वक्त ही कितना लगता है.
हरेक चीज़ में
शामिल हो गया है
तेरा वज़ूद
वरना चीजों को
बेजान होने में
वक्त ही कितना लगता है.
प्रेम - पाँच
रिश्तों की भीड़ से निकल कर
आया हूँ तेरे पास
अब न पीछे जाने का सवाल है
न आगे जाने की इच्छा
आओ
इन दोनों बिंदुओं के बीच
कहीं बैठ कर
प्यार करें.
आया हूँ तेरे पास
अब न पीछे जाने का सवाल है
न आगे जाने की इच्छा
आओ
इन दोनों बिंदुओं के बीच
कहीं बैठ कर
प्यार करें.
Sunday, July 4, 2010
मनी-प्लांट
न खाद न मिट्टी
न सूरज की रोशनी
पानी से भरी हुई
एक बॉटल काफी है
इसे लगाने के लिए
तुम्हारी ज़रा-सी देखभाल
पूरे कमरे में फैला देगी इसे
इसके मासूम हरे पत्ते
चूमने लगेंगे
तस्वीरों में कैद चेहरे
बातें करने लगेंगे
कमरे की बेजान चीज़ों से
मुझे नहीं मालूम
इस लता का बॉटनीकल नाम
पर मैने इसे
अपना एक नाम दिया है 'सपना'.
न सूरज की रोशनी
पानी से भरी हुई
एक बॉटल काफी है
इसे लगाने के लिए
तुम्हारी ज़रा-सी देखभाल
पूरे कमरे में फैला देगी इसे
इसके मासूम हरे पत्ते
चूमने लगेंगे
तस्वीरों में कैद चेहरे
बातें करने लगेंगे
कमरे की बेजान चीज़ों से
मुझे नहीं मालूम
इस लता का बॉटनीकल नाम
पर मैने इसे
अपना एक नाम दिया है 'सपना'.
Friday, July 2, 2010
बैक बेंचर्स
एकदम अलग होते हैं
वे बच्चे
जो बैठते हैं
कक्षा की अंतिम बेंच पर
एक अलग दुनिया होती है उनकी
जैसे विश्व मानचित्र पर
तीसरी दुनिया
खूब डाँटते हैं इन्हें अध्यापक
थोड़ा-बहुत प्यार भी करते हैं
इनसे प्रश्न पूछते हुए
शायद थोड़ा डरते भी हैं
क्योंकि प्रश्न ज्यादा होते हैं इनके पास
और उत्तर कम-
किसी प्रश्न का उत्तर न दे पायें
तो अहं को चोट नहीं पहुँचती
और बता दें
तो उपलब्धि हो जाती है
पीछे बैठे हुए
तमाम दोस्तों की
खूब गोल मारते हैं
हॉकी और फुटबॉल में
खूब गोल मारते हैं
कक्षाओं से
किताबों में किसी का जी नहीं लगता
और सब के सब
नाराज़ रहते हैं
अपने-अपने घरों से
न इन्हें सवालों से डर लगता है
न इम्तहानों से
अपने अध्यापकों से ज्यादा जानते हैं
पाठ्यक्रम की असली औकात
हर साल
हैरान होते हैं अध्यापक
और हर साल
पास हो जाते हैं
पीछे बैठने वाले
सब के सब बदमाश.
वे बच्चे
जो बैठते हैं
कक्षा की अंतिम बेंच पर
एक अलग दुनिया होती है उनकी
जैसे विश्व मानचित्र पर
तीसरी दुनिया
खूब डाँटते हैं इन्हें अध्यापक
थोड़ा-बहुत प्यार भी करते हैं
इनसे प्रश्न पूछते हुए
शायद थोड़ा डरते भी हैं
क्योंकि प्रश्न ज्यादा होते हैं इनके पास
और उत्तर कम-
किसी प्रश्न का उत्तर न दे पायें
तो अहं को चोट नहीं पहुँचती
और बता दें
तो उपलब्धि हो जाती है
पीछे बैठे हुए
तमाम दोस्तों की
खूब गोल मारते हैं
हॉकी और फुटबॉल में
खूब गोल मारते हैं
कक्षाओं से
किताबों में किसी का जी नहीं लगता
और सब के सब
नाराज़ रहते हैं
अपने-अपने घरों से
न इन्हें सवालों से डर लगता है
न इम्तहानों से
अपने अध्यापकों से ज्यादा जानते हैं
पाठ्यक्रम की असली औकात
हर साल
हैरान होते हैं अध्यापक
और हर साल
पास हो जाते हैं
पीछे बैठने वाले
सब के सब बदमाश.
Monday, June 28, 2010
पिता के लिए
कविता के भीतर
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.
बैठी है माँ
कविता के बाहर
टहल रहे हैं पिता-
लिखी गईं और लिखी जा रही
ढेर कविताओं में
लगभग अनुपस्थित हैं पिता
स्वर्ग के वर्जित फल की तरह
लगभग उपेक्षित-
क्या बहुत आसान है
माँ पर कविता लिखना
लिखना क्या
उसके तो चेहरे पर लिखी होती है कविता
हमें तो बस
कागज़ पर उतारना भर होती है
पर क्या इतना कठिन है
पिता के चेहरे को पढ़ पाना
धूल, धूप और पसीने ने
क्या इतनी गड्डमड्ड कर दी है
उसके चेहरे पर लिखी कविता-
कविता के बाहर टहलते हुए
क्या सोचते होंगे पिता
शायद यही
कि चलो कम से कम
अपनी माँ को तो पूछ रहा है
उसका बेटा.
Monday, June 21, 2010
दोस्तों के बहाने
एक बार मन में विचार आया
क्यों न बहुत पीछे रह जाने की पीड़ा
बहुत आगे निकल गये दोस्तों से कहूँ
शायद मन का बोझ
कुछ हल्का हो जाये
पर सवाल था
इन दोस्तों को
तलाशा कहाँ जाये
उनके घर, गली, मोहल्ले
आज भी याद हैं
पर पता नहीं
वे वहाँ अब रहते भी हैं या नहीं
पता नहीं
कौन रहता होगा
अब उन मकानों में
कोई नया ही मकान मालिक
कोई किरायेदार
या फिर
उनके ही अंधे माँ-बाप
एक अनजाना-सा भय
मन में समा गया अचानक
पता नहीं अब भी
पहचान जायें वे मेरी आवाज़
पता नहीं
वे मुझ से ही पूछने लगें
अपने बेटों के पते
पता नहीं
उनकी काँपती आवाज़ें
बढ़ा दें
मेरे मन का बोझ.
क्यों न बहुत पीछे रह जाने की पीड़ा
बहुत आगे निकल गये दोस्तों से कहूँ
शायद मन का बोझ
कुछ हल्का हो जाये
पर सवाल था
इन दोस्तों को
तलाशा कहाँ जाये
उनके घर, गली, मोहल्ले
आज भी याद हैं
पर पता नहीं
वे वहाँ अब रहते भी हैं या नहीं
पता नहीं
कौन रहता होगा
अब उन मकानों में
कोई नया ही मकान मालिक
कोई किरायेदार
या फिर
उनके ही अंधे माँ-बाप
एक अनजाना-सा भय
मन में समा गया अचानक
पता नहीं अब भी
पहचान जायें वे मेरी आवाज़
पता नहीं
वे मुझ से ही पूछने लगें
अपने बेटों के पते
पता नहीं
उनकी काँपती आवाज़ें
बढ़ा दें
मेरे मन का बोझ.
Friday, June 18, 2010
दोस्तों के बारे में
कौन समझ सका है
दोस्तों को
सिवाय दोस्तों के
आवारा छोकरों का एक झुण्ड
जो बेझिझक घुस जाता है
घरों में
जैसे हवा के साथ
घर में भरा जाते हैं
पीले पत्ते
कोई वक्त नहीं है
उनके आने का
सुबह, दोपहर, शाम या रात
कभी भी धमक जाते हैं
बिना दरवाज़ा खटखटाये
बहुत जल्दी में हुए
तो सड़क पर ही खड़े होकर
पुकारने लगते हैं
अपने दोस्तों को
उनके घर के नाम से
कुछ भी अलग नहीं है उनका
सब-कुछ अलग होते हुए भी
कपड़ों की
इतनी अदला-बदली होती है
आपस में
कि कोई नहीं जानता
किसके पास
कितने कपड़े हैं
परेशान हैं माँ-बाप
अपने घर के सुख-दुःख
उनसे कैसे छुपायें
एक साथ
उदास होते हैं वे
एक साथ
चमकती है
उनके चेहरों पर खुशी
सबकी अपनी
एक अलग दुनिया है
फिर भी शामिल हैं वे
एक-दूसरे की दुनिया में.
दोस्तों को
सिवाय दोस्तों के
आवारा छोकरों का एक झुण्ड
जो बेझिझक घुस जाता है
घरों में
जैसे हवा के साथ
घर में भरा जाते हैं
पीले पत्ते
कोई वक्त नहीं है
उनके आने का
सुबह, दोपहर, शाम या रात
कभी भी धमक जाते हैं
बिना दरवाज़ा खटखटाये
बहुत जल्दी में हुए
तो सड़क पर ही खड़े होकर
पुकारने लगते हैं
अपने दोस्तों को
उनके घर के नाम से
कुछ भी अलग नहीं है उनका
सब-कुछ अलग होते हुए भी
कपड़ों की
इतनी अदला-बदली होती है
आपस में
कि कोई नहीं जानता
किसके पास
कितने कपड़े हैं
परेशान हैं माँ-बाप
अपने घर के सुख-दुःख
उनसे कैसे छुपायें
एक साथ
उदास होते हैं वे
एक साथ
चमकती है
उनके चेहरों पर खुशी
सबकी अपनी
एक अलग दुनिया है
फिर भी शामिल हैं वे
एक-दूसरे की दुनिया में.
Saturday, June 12, 2010
रुपसिंह मिस्त्री
बहुत प्यार और पसीने से
उसने बनाया है
यह शाला भवन
उसका नाम भी लिखा हुआ है
संगमरमर के एक छोटे-से टुकड़े पर -
रूपसिंह मिस्त्री
लाल पठार, बासौदा
सोचता हूँ मैं
अगर होता शाहजहाँ
तो ज़रूर पूछता
उस गुस्ताख़ का नाम
जिसने संगमरमर पर
खुदवाया है
इस कारीगर का नाम
संगीन ज़ुर्म है यह -
चीखता शहंशाह
सरासर तौहीन है यह
मुगलिया सल्तनत की
कहीं कारीगरों के नाम
खोदे जाते हैं पत्थरों पर
उदाहरण देता वह ताजमहल का
और गुस्से से पगला जाता
शायद हुक्म सुना देता
जय नारायण मेहता को सूली पर लटकाने का -
शायद एक मौका देता पंडित जी को
अपनी सफाई में कुछ कहने का
हो सकता है
अपनी भाषा में
उसे समझाते पंडित जी -
यह ताजमहल नहीं है जहाँपनाह
और हो भी नहीं सकता
ईंट, सीमेंट, कंक्रीट और पसीने से बना
यह लड़कियों का स्कूल है
जिसमें पढ़ती हैं
सैकड़ों मुमताज -
हो सकता है
मुमताज का नाम सुनकर
शांत हो जाता गुस्सा
और सपनों में खो जाता शाहजहाँ
हो सकता है
सही-सलामत लौट आते पंडित जी
और दरबार का यह किस्सा
सुनाते अपनी छात्राओं को
और इस किस्से पर
खूब खिलखिलाती लड़कियाँ
हो सकता है
उनकी हँसी के साथ
बिखर जाते कक्षा में
सैकड़ों सपने.
(बड़े भाई जयनारायण मेहता के लिए)
उसने बनाया है
यह शाला भवन
उसका नाम भी लिखा हुआ है
संगमरमर के एक छोटे-से टुकड़े पर -
रूपसिंह मिस्त्री
लाल पठार, बासौदा
सोचता हूँ मैं
अगर होता शाहजहाँ
तो ज़रूर पूछता
उस गुस्ताख़ का नाम
जिसने संगमरमर पर
खुदवाया है
इस कारीगर का नाम
संगीन ज़ुर्म है यह -
चीखता शहंशाह
सरासर तौहीन है यह
मुगलिया सल्तनत की
कहीं कारीगरों के नाम
खोदे जाते हैं पत्थरों पर
उदाहरण देता वह ताजमहल का
और गुस्से से पगला जाता
शायद हुक्म सुना देता
जय नारायण मेहता को सूली पर लटकाने का -
शायद एक मौका देता पंडित जी को
अपनी सफाई में कुछ कहने का
हो सकता है
अपनी भाषा में
उसे समझाते पंडित जी -
यह ताजमहल नहीं है जहाँपनाह
और हो भी नहीं सकता
ईंट, सीमेंट, कंक्रीट और पसीने से बना
यह लड़कियों का स्कूल है
जिसमें पढ़ती हैं
सैकड़ों मुमताज -
हो सकता है
मुमताज का नाम सुनकर
शांत हो जाता गुस्सा
और सपनों में खो जाता शाहजहाँ
हो सकता है
सही-सलामत लौट आते पंडित जी
और दरबार का यह किस्सा
सुनाते अपनी छात्राओं को
और इस किस्से पर
खूब खिलखिलाती लड़कियाँ
हो सकता है
उनकी हँसी के साथ
बिखर जाते कक्षा में
सैकड़ों सपने.
(बड़े भाई जयनारायण मेहता के लिए)
Sunday, June 6, 2010
गिरगिट
रंग बदल रहा है
गिरगिट
पेड़ पर बैठा हुआ
जबड़ों से ज्यादा खतरनाक हैं
उसके रंग
हरे पत्तों के बीच
एकदम हरियल हो जाता है
जमीन तक आते-आते
एकदम भूरा
पेट भर चुका है उसका
घर लौट रहा है गिरगिट
शाम के पाँच बजे हैं अभी
पता नहीं
किस रंग में
प्यार करेगा अपनी मादा को
पता नहीं किस रंग में
चूमेगा अपने बच्चों को
जाने
किस रंग में
घर
लौट रहा है गिरगिट.
गिरगिट
पेड़ पर बैठा हुआ
जबड़ों से ज्यादा खतरनाक हैं
उसके रंग
हरे पत्तों के बीच
एकदम हरियल हो जाता है
जमीन तक आते-आते
एकदम भूरा
पेट भर चुका है उसका
घर लौट रहा है गिरगिट
शाम के पाँच बजे हैं अभी
पता नहीं
किस रंग में
प्यार करेगा अपनी मादा को
पता नहीं किस रंग में
चूमेगा अपने बच्चों को
जाने
किस रंग में
घर
लौट रहा है गिरगिट.
Friday, May 21, 2010
खोटा सिक्का
एक दिन मित्रों ने घोषित कर दिया
ईश्वर को खोटा सिक्का
दूसरे ही दिन
दुश्मनों ने
उसे बाजार में चला दिया
घूमता रहा सिक्का बाज़ार में
और फिर लौटा एक दिन
मित्रों के पास
बदरंग और घिसा-पिटा
एकदम खोटे सिक्के की तरह
ईश्वर को खोटा सिक्का
दूसरे ही दिन
दुश्मनों ने
उसे बाजार में चला दिया
घूमता रहा सिक्का बाज़ार में
और फिर लौटा एक दिन
मित्रों के पास
बदरंग और घिसा-पिटा
एकदम खोटे सिक्के की तरह
Wednesday, May 19, 2010
खूबसूरत घर
एक ख़ूबसूरत घर है
घर के सामने
हरा-भरा लॉन है
कुछ दरख़्त हैं आस-पास
रंग-बिरंगे फूल हैं
क्यारियों में खिले हुए
एक ख़ूबसूरत घर है
कमरे की दीवार पर चिपके हुए
पोस्टर में
इस बार भी दिवाली पर
सम्हल कर पोतनी होगी दीवार
पिछली बार की तरह.
घर के सामने
हरा-भरा लॉन है
कुछ दरख़्त हैं आस-पास
रंग-बिरंगे फूल हैं
क्यारियों में खिले हुए
एक ख़ूबसूरत घर है
कमरे की दीवार पर चिपके हुए
पोस्टर में
इस बार भी दिवाली पर
सम्हल कर पोतनी होगी दीवार
पिछली बार की तरह.
Friday, May 14, 2010
बारिश - एक
एक दिन बारिश में
भीगते हुए जाना
घर का मतलब
घर नहीं होता होगा जिनके पास
वे क्या सोचते होंगे
बारिश के बारे में.
भीगते हुए जाना
घर का मतलब
घर नहीं होता होगा जिनके पास
वे क्या सोचते होंगे
बारिश के बारे में.
बारिश - दो
रेनकोट पहने हुए यह आदमी
बारिश को रोकने निकला है
हटाओ इसे सड़क से
बंद कर दो इसे
किसी मकान के भीतर
जब तबियत से बरस ले पानी
तब खोल देना-
दरवाज़े की कुंडी.
बारिश को रोकने निकला है
हटाओ इसे सड़क से
बंद कर दो इसे
किसी मकान के भीतर
जब तबियत से बरस ले पानी
तब खोल देना-
दरवाज़े की कुंडी.
Thursday, May 13, 2010
समझौता
रोज़ सुबह आता है दूधवाला
और पानी मिला दूध
जग में डालकर चला जाता है
रोज़ डाँटता हूँ उसे
धमकी देता हूँ दूध बंद देने की
मुस्कुराता है दूधवाला
और रोज़ की तरह
साइकिल की घंटी बजाते हुए
आगे निकल जाता है
रोज़ शुरु होता है दिन
इस छोटे-से
समझौते के साथ.
और पानी मिला दूध
जग में डालकर चला जाता है
रोज़ डाँटता हूँ उसे
धमकी देता हूँ दूध बंद देने की
मुस्कुराता है दूधवाला
और रोज़ की तरह
साइकिल की घंटी बजाते हुए
आगे निकल जाता है
रोज़ शुरु होता है दिन
इस छोटे-से
समझौते के साथ.
Tuesday, May 4, 2010
यात्रा के दौरान
इस बार
पूरे सफर के दौरान
मैने एक भी कविता नहीं लिखी
एक मासूम ज़िद्दी बच्चे ने
छीन ली मुझसे
मेरी खिड़की वाली सीट
और फिर मैं
पूरे रास्ते देखता रहा
उसकी आँखों में
नदी, पुल, पहाड़
और
भागते हुए पेड़ों के प्रतिबिंब.
पूरे सफर के दौरान
मैने एक भी कविता नहीं लिखी
एक मासूम ज़िद्दी बच्चे ने
छीन ली मुझसे
मेरी खिड़की वाली सीट
और फिर मैं
पूरे रास्ते देखता रहा
उसकी आँखों में
नदी, पुल, पहाड़
और
भागते हुए पेड़ों के प्रतिबिंब.
Saturday, May 1, 2010
घर : दो
अपने घर से
मीलों दूर
इस अजनबी शहर में
दस बाई बारह का
यह कमरा
कभी-कभी
रेल के डिब्बे में
तब्दील हो जाता है
आधी रात के बाद
और भागने लगता है
घर की तरफ़.
मीलों दूर
इस अजनबी शहर में
दस बाई बारह का
यह कमरा
कभी-कभी
रेल के डिब्बे में
तब्दील हो जाता है
आधी रात के बाद
और भागने लगता है
घर की तरफ़.
Wednesday, April 28, 2010
Wednesday, April 21, 2010
सरकारी आदमी
गेहूँ के उस हरे-भरे खेत में
ऐसे खड़े हुए हैं
टेलीफोन के खम्भे
जैसे अभी से
आ धमके हों
कर्ज़ा वसूलने
सरकारी आदमी.
ऐसे खड़े हुए हैं
टेलीफोन के खम्भे
जैसे अभी से
आ धमके हों
कर्ज़ा वसूलने
सरकारी आदमी.
Sunday, April 18, 2010
Friday, April 16, 2010
Thursday, April 15, 2010
Wednesday, April 14, 2010
कविता
धूप की तरह आओ
मेरे घर में
पानी की तरह
चू जाओ कहीं से भी
हवा की तरह
दरवाज़ा खटखटा कर आओ
पीले पत्तों की तरह
भरा जाओ घर में
सपने की तरह चली आओ
दबे पाँव नींद में
दुःख की तरह आओ
कभी न जाने के लिए
या खुशी की तरह
धमक जाओ अचानक
दिन भर के काम से निबट कर
रात
जिस तरह आती है पत्नी
इस तरह आओ
जाग रहा हूँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में
चाहे जिस तरह आओ.
मेरे घर में
पानी की तरह
चू जाओ कहीं से भी
हवा की तरह
दरवाज़ा खटखटा कर आओ
पीले पत्तों की तरह
भरा जाओ घर में
सपने की तरह चली आओ
दबे पाँव नींद में
दुःख की तरह आओ
कभी न जाने के लिए
या खुशी की तरह
धमक जाओ अचानक
दिन भर के काम से निबट कर
रात
जिस तरह आती है पत्नी
इस तरह आओ
जाग रहा हूँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में
चाहे जिस तरह आओ.
Tuesday, April 13, 2010
नाखून : एक
कितने भी सलीके से काटे जायें
नाखून
खूबसूरत नहीं होते
खूबसूरत तो सिर्फ
चेहरे होते हैं
लहुलुहान होने से पहले
और कई अर्थों में
लहुलुहान होने के बाद भी.
नाखून
खूबसूरत नहीं होते
खूबसूरत तो सिर्फ
चेहरे होते हैं
लहुलुहान होने से पहले
और कई अर्थों में
लहुलुहान होने के बाद भी.
दंगे
घर के भीतर
मारा गया विश्वास
गली के मोड़ पर
मारी गई यारी
गाँव, कस्बे, शहर, महानगर
सब मारे गये
और इन सबके साथ
मारा गया मुल्क.
मारा गया विश्वास
गली के मोड़ पर
मारी गई यारी
गाँव, कस्बे, शहर, महानगर
सब मारे गये
और इन सबके साथ
मारा गया मुल्क.
Monday, April 12, 2010
दीवार
एक दिन वे आयेंगे
और लिख जायेंगे
तुम्हारी दीवार पर
तुम्हारे पड़ौसी की मौत का फरमान
दूसरे दिन वे आयेंगे
लिख जायेंगे
पड़ौसी की दीवार पर
तुम्हारी मौत का फरमान
तीसरे दिन
वे फिर आयेंगे
और लिख जायेंगे
शहर की तमाम दीवारों पर
ऐसे ही फरमान-
उन्हें सिर्फ तीन दिन चाहिए
इस दुनिया को
श्मशान में बदलने के लिए.
और लिख जायेंगे
तुम्हारी दीवार पर
तुम्हारे पड़ौसी की मौत का फरमान
दूसरे दिन वे आयेंगे
लिख जायेंगे
पड़ौसी की दीवार पर
तुम्हारी मौत का फरमान
तीसरे दिन
वे फिर आयेंगे
और लिख जायेंगे
शहर की तमाम दीवारों पर
ऐसे ही फरमान-
उन्हें सिर्फ तीन दिन चाहिए
इस दुनिया को
श्मशान में बदलने के लिए.
कौन जायेगा अगली शताब्दी में...?
सिर्फ प्रेमिकाएँ जायेंगी
अगली शताब्दी में
पत्नियाँ इसी तरफ
इंतज़ार करेंगी
हाथों में रंगीन गुब्बारे लिए
कवि जायेंगे
अगली शताब्दी में
बधाई गीत गाते हुए
कविता इसी तरफ
इंतज़ार करेगी
विज्ञान जायेगा
तकनीक जायेगी
बड़े-बड़े अधिकारी
और चिकित्सक जायेंगे
बुखार से तपते हुए मरीज़
इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे
कौन जायेगा
अगली शताब्दी में
बेशर्म, गंदे, नीच
ठसक से भरे हुए
जवाब जायेंगे
अगली शताब्दी में
सवाल इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे.
अगली शताब्दी में
पत्नियाँ इसी तरफ
इंतज़ार करेंगी
हाथों में रंगीन गुब्बारे लिए
कवि जायेंगे
अगली शताब्दी में
बधाई गीत गाते हुए
कविता इसी तरफ
इंतज़ार करेगी
विज्ञान जायेगा
तकनीक जायेगी
बड़े-बड़े अधिकारी
और चिकित्सक जायेंगे
बुखार से तपते हुए मरीज़
इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे
कौन जायेगा
अगली शताब्दी में
बेशर्म, गंदे, नीच
ठसक से भरे हुए
जवाब जायेंगे
अगली शताब्दी में
सवाल इसी तरफ
इंतज़ार करेंगे.
Thursday, March 25, 2010
पिता के जूते
बचपन की बात और थी
जब पिता के जूतों में पाँव डालकर
नचते फिरते थे घर भर में
दायें पैर का जूता बाएँ में और
बाएँ पैर का दाएँ में
कितना चिल्लाती थी माँ
पिता की मार भी खाई कई बार
जब एक जूता आँगन में
और दूसरा बैठक में मिला
एक अजीब सा आकर्षण था
पिता के जूतों में
गिरना, पड़ना, चलना सब सीखा
इन्हीं जूतों के सहारे
पर ये सब बचपन की बातें हैं
अब कहाँ इतनी हिम्मत
कि डालूँ पिता के जूतों में अपने पाँव
चलना सीख चुका हूँ इसलिए
या फिर चल न सकूँगा इन्हें पहनकर इसलिए
डरता हूँ
बरसों पुरानी कोई जंग खाई कील
या अन्दर छुपे किसी काँटे से
या शायद डरता हूँ
मीलों लम्बी उस थकान से
जो अँधेरे की चादर ओढे़
आराम से पसरी है
जूतों की सुरंग के भीतर
बचपन की बात कुछ और थी.
जब पिता के जूतों में पाँव डालकर
नचते फिरते थे घर भर में
दायें पैर का जूता बाएँ में और
बाएँ पैर का दाएँ में
कितना चिल्लाती थी माँ
पिता की मार भी खाई कई बार
जब एक जूता आँगन में
और दूसरा बैठक में मिला
एक अजीब सा आकर्षण था
पिता के जूतों में
गिरना, पड़ना, चलना सब सीखा
इन्हीं जूतों के सहारे
पर ये सब बचपन की बातें हैं
अब कहाँ इतनी हिम्मत
कि डालूँ पिता के जूतों में अपने पाँव
चलना सीख चुका हूँ इसलिए
या फिर चल न सकूँगा इन्हें पहनकर इसलिए
डरता हूँ
बरसों पुरानी कोई जंग खाई कील
या अन्दर छुपे किसी काँटे से
या शायद डरता हूँ
मीलों लम्बी उस थकान से
जो अँधेरे की चादर ओढे़
आराम से पसरी है
जूतों की सुरंग के भीतर
बचपन की बात कुछ और थी.
रोशनी
इस रोशनी में
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने चाक पर गीली मिट्टी रख कर
आकार दिया है इस दीपक का
इस रोशनी में थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने उगाया है कपास
तुम्हारी बाती के लिए
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी
जिसके पसीने से बना है तेल
इस रोशनी में
थोड़ा सा हिस्सा
उस अँधेरे का भी है
जो दिये के नीचे
पसरा है चुपचाप
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने चाक पर गीली मिट्टी रख कर
आकार दिया है इस दीपक का
इस रोशनी में थोड़ा सा हिस्सा उसका भी है
जिसने उगाया है कपास
तुम्हारी बाती के लिए
थोड़ा सा हिस्सा उसका भी
जिसके पसीने से बना है तेल
इस रोशनी में
थोड़ा सा हिस्सा
उस अँधेरे का भी है
जो दिये के नीचे
पसरा है चुपचाप
जुलूस
कई बरस बाद सड़क पर देखा
इतना बड़ा जुलूस
वरना इन दिनों तो
परिदृश्य से बाहर हैं
ऐसे दृश्य
जीन्स-टी शर्ट पहने लड़के-लड़कियाँ
हाथों में पोस्टर
अँग्रेज़ी में लिखे हुए नारे
हँसते, मुस्कराते, बतियाते
पहली बार निकले हैं
इस तरह सड़कों पर
नथुनों से टकराती है
परफ्यूम और डिओडरेन्टस की गंध
कितना खुशबूदार जुलूस है यह
रंग खुशबू और जवानी
मैं देखता हूँ इस जुलूस को
बेहद करीब से
सोचता हूँ शामिल हो जाऊँ इसमें
फिर सोचता हूँ नहीं
अपने पसीने की गंध से
पहचान लिया जाऊँगा
जुलूस नहीं है यह
यह तो
किसी औद्योगिक घराने की बारात है.
इतना बड़ा जुलूस
वरना इन दिनों तो
परिदृश्य से बाहर हैं
ऐसे दृश्य
जीन्स-टी शर्ट पहने लड़के-लड़कियाँ
हाथों में पोस्टर
अँग्रेज़ी में लिखे हुए नारे
हँसते, मुस्कराते, बतियाते
पहली बार निकले हैं
इस तरह सड़कों पर
नथुनों से टकराती है
परफ्यूम और डिओडरेन्टस की गंध
कितना खुशबूदार जुलूस है यह
रंग खुशबू और जवानी
मैं देखता हूँ इस जुलूस को
बेहद करीब से
सोचता हूँ शामिल हो जाऊँ इसमें
फिर सोचता हूँ नहीं
अपने पसीने की गंध से
पहचान लिया जाऊँगा
जुलूस नहीं है यह
यह तो
किसी औद्योगिक घराने की बारात है.
Tuesday, March 23, 2010
टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ
कितना उबाऊ, नीरस, बेजान
और बदबूदार हो गया है
सब-कुछ
जीवन के हर सुंदर दृश्य में
घुस आया है
खजिया कुत्तों का एक झुंड
दुम दबा कर भाग रही हैं
अन्तर-आत्माएँ
शांति की तलाश में-
फेशियल कराने
निकला है सौंदर्य बोध
थ्रेडिंग के इंतज़ार में
बैठी है आत्मा
मंच पर इठलाती सुन्दरियाँ
मदर टेरेसा बनना चाहती हैं
ताजपोशी के बाद
कतारें लगी हैं
स्टेडियम के बाहर
अंदर नाच रहे हैं
माइकल जैक्सन
स्कूलों से गायब हैं बच्चे
चौपालों से गायब हैं बूढ़े
खेत-खलिहान और घरों के आँगन से
गायब हैं औरतें
पूरी की पूरी एक बस्ती
लगी हुई है
घासलेट की लाइन में
दीवारों पर चस्पा हैं
साक्षरता और महिला-समृद्धि योजनाओं के
फटे हुए पोस्टर्स –
पोस्टमार्टम की टेबल पर लेटे हुए मुर्दे से
फीस माँग रहे हैं डॉक्टर
अधिकतम ऊँचाई पर गया है
हमारा चिकित्सा विज्ञान
मरीज़ों के पेट में
छूट रहे हैं
डॉक्टरों के चश्मे, घड़ियाँ, दस्ताने और प्रेमपत्र
एक दिन भूल से चली जाती है नैतिकता
मरीज के पेट में रखी हुई
परेशान है पूरा चिकित्सा विभाग
कि नैतिकता
कोई कैंची या घड़ी तो है नहीं
जो सुरक्षित हो अब तक
मरीज़ के पाखाने के साथ-साथ
वह भी बाहर निकल गई होगी अब तक
और किसी सूअर के पेट की
शोभा बढ़ा रही होगी –
चारों तरफ बिखरी हुई है विष्ठा
चारों तरफ
बिखरी हुई हैं नैतिकताएँ
अलग-अलग पेशों की नैतिकताएँ
धर्म
राजनीति
और
कला
रेशे-रेशे की नैतिकताएँ
सूअर घूम रहे हैं
चारों तरफ
विष्ठा में लिपटे हुए हैं उनके मुँह
और पेट में लेटी हुई हैं
हमारी नैतिकताएँ
एक अजीब-सी बू
फैली हुई है चारों तरफ
एक अजीब-सा शोर
एक अजीब-सा सन्नाटा
एक अजीब-सा अवसाद
एक अजीब-सी दहशत
एक अजीब-सी निष्क्रियता
उतर रही है
धीरे-धीरे
शिराओं में.
और बदबूदार हो गया है
सब-कुछ
जीवन के हर सुंदर दृश्य में
घुस आया है
खजिया कुत्तों का एक झुंड
दुम दबा कर भाग रही हैं
अन्तर-आत्माएँ
शांति की तलाश में-
फेशियल कराने
निकला है सौंदर्य बोध
थ्रेडिंग के इंतज़ार में
बैठी है आत्मा
मंच पर इठलाती सुन्दरियाँ
मदर टेरेसा बनना चाहती हैं
ताजपोशी के बाद
कतारें लगी हैं
स्टेडियम के बाहर
अंदर नाच रहे हैं
माइकल जैक्सन
स्कूलों से गायब हैं बच्चे
चौपालों से गायब हैं बूढ़े
खेत-खलिहान और घरों के आँगन से
गायब हैं औरतें
पूरी की पूरी एक बस्ती
लगी हुई है
घासलेट की लाइन में
दीवारों पर चस्पा हैं
साक्षरता और महिला-समृद्धि योजनाओं के
फटे हुए पोस्टर्स –
पोस्टमार्टम की टेबल पर लेटे हुए मुर्दे से
फीस माँग रहे हैं डॉक्टर
अधिकतम ऊँचाई पर गया है
हमारा चिकित्सा विज्ञान
मरीज़ों के पेट में
छूट रहे हैं
डॉक्टरों के चश्मे, घड़ियाँ, दस्ताने और प्रेमपत्र
एक दिन भूल से चली जाती है नैतिकता
मरीज के पेट में रखी हुई
परेशान है पूरा चिकित्सा विभाग
कि नैतिकता
कोई कैंची या घड़ी तो है नहीं
जो सुरक्षित हो अब तक
मरीज़ के पाखाने के साथ-साथ
वह भी बाहर निकल गई होगी अब तक
और किसी सूअर के पेट की
शोभा बढ़ा रही होगी –
चारों तरफ बिखरी हुई है विष्ठा
चारों तरफ
बिखरी हुई हैं नैतिकताएँ
अलग-अलग पेशों की नैतिकताएँ
धर्म
राजनीति
और
कला
रेशे-रेशे की नैतिकताएँ
सूअर घूम रहे हैं
चारों तरफ
विष्ठा में लिपटे हुए हैं उनके मुँह
और पेट में लेटी हुई हैं
हमारी नैतिकताएँ
एक अजीब-सी बू
फैली हुई है चारों तरफ
एक अजीब-सा शोर
एक अजीब-सा सन्नाटा
एक अजीब-सा अवसाद
एक अजीब-सी दहशत
एक अजीब-सी निष्क्रियता
उतर रही है
धीरे-धीरे
शिराओं में.
Monday, March 22, 2010
बाज़ार : एक
पैर नहीं थकते
आँखें थक जाती हैं
इस बाज़ार में
बच्चे की तरह उँगली पकड़कर
साथ चलते हैं सपने
और फिर गुम जाते हैं
रंग-बिरंगी खुश्बूदार भीड़ में
मैं सपने तलाशता हूँ
इस बाज़ार में
और फिर-
पैर भी थक जाते हैं.
आँखें थक जाती हैं
इस बाज़ार में
बच्चे की तरह उँगली पकड़कर
साथ चलते हैं सपने
और फिर गुम जाते हैं
रंग-बिरंगी खुश्बूदार भीड़ में
मैं सपने तलाशता हूँ
इस बाज़ार में
और फिर-
पैर भी थक जाते हैं.
बाज़ार : दो
पसीने की गंध मिटाने के लिए
जिसे वे दुर्गंध कहते हैं
कितनी सारी चीजें बिक रही हैं
इस बाज़ार में
तरह-तरह के खुश्बूदार साबुन
स्प्रे, पॉवडर और डिओडरेन्ट्स
मनुष्य के पसीने के पीछे
पड़ा हुआ है पूरा बाज़ार
कुछ न कुछ तो
खरीदना ही होगा भाई साहब
इस तरह नहीं घूम सकते
आप इस धरती पर
पसीने से गंधियाते.
जिसे वे दुर्गंध कहते हैं
कितनी सारी चीजें बिक रही हैं
इस बाज़ार में
तरह-तरह के खुश्बूदार साबुन
स्प्रे, पॉवडर और डिओडरेन्ट्स
मनुष्य के पसीने के पीछे
पड़ा हुआ है पूरा बाज़ार
कुछ न कुछ तो
खरीदना ही होगा भाई साहब
इस तरह नहीं घूम सकते
आप इस धरती पर
पसीने से गंधियाते.
पानी : एक
जितनी ज़रुरत थी
दरख़्तों ने उतना ही लिया
पानी
परिन्दों ने भी प्यार से
सिर्फ उतना ही पिया पानी
किसी ने नहीं तोड़ा
धरती और आसमान का भरोसा
सिवाय हमारे.
दरख़्तों ने उतना ही लिया
पानी
परिन्दों ने भी प्यार से
सिर्फ उतना ही पिया पानी
किसी ने नहीं तोड़ा
धरती और आसमान का भरोसा
सिवाय हमारे.
पानी : दो
सिर्फ रेत बची है
नदी के पास
कुएँ के पास
कुछ कहानियाँ
पानी ही पानी है
बाज़ार और विज्ञापनों में
एक शब्द भर
बचा है पानी.
नदी के पास
कुएँ के पास
कुछ कहानियाँ
पानी ही पानी है
बाज़ार और विज्ञापनों में
एक शब्द भर
बचा है पानी.
Sunday, March 21, 2010
परिभाषाएँ
पहले जैसी नहीं रहीं
अब परिभाषाएँ
सरल और सहज
संज्ञा, सर्वनाम की तरह
कि किसी ने पूछा
और झट से बता दी
अब तो हथियारों के साये में
शान से चलती हैं परिभाषाएँ
परिभाषा पूछी
तो गोली चल जायेगी
और गोली के बाबत सवाल किया
तो परिभाषा बता दी जायेगी.
अब परिभाषाएँ
सरल और सहज
संज्ञा, सर्वनाम की तरह
कि किसी ने पूछा
और झट से बता दी
अब तो हथियारों के साये में
शान से चलती हैं परिभाषाएँ
परिभाषा पूछी
तो गोली चल जायेगी
और गोली के बाबत सवाल किया
तो परिभाषा बता दी जायेगी.
सखेद
सखेद
लौट आई कविता
कवि ने नहीं देखी दिल्ली
वह दिल्ली घूम आई
यात्रा की थकान थी उसके चेहरे पर
और धूप ने उसका रंग
थोड़ा और साँवला कर दिया था
नींद से बोझिल पलकों से
उसने मुझे देखा
वह मुझे और भी ख़ूबसूरत लगी.
लौट आई कविता
कवि ने नहीं देखी दिल्ली
वह दिल्ली घूम आई
यात्रा की थकान थी उसके चेहरे पर
और धूप ने उसका रंग
थोड़ा और साँवला कर दिया था
नींद से बोझिल पलकों से
उसने मुझे देखा
वह मुझे और भी ख़ूबसूरत लगी.
यात्रा के दौरान
जंज़ीरों से बंधे हैं
सूटकेस
सिरहाने रखे हुए हैं
जूते
बर्थ से चिपके हुए हैं
जिस्म
संशय और अविश्वास के अंधेरे में
झपक रही है
नींद
ट्रेन चल रही है.
सूटकेस
सिरहाने रखे हुए हैं
जूते
बर्थ से चिपके हुए हैं
जिस्म
संशय और अविश्वास के अंधेरे में
झपक रही है
नींद
ट्रेन चल रही है.
समय : दो
बड़ा विचित्र समय है
एक आदमी
जो ईमानदारी से पेट पाल रहा है
अपना और परिवार का
सोचता है
कहीं वह अहसान तो नहीं कर रहा
अपने देश और समाज पर
अंधेरे से लथपथ चेहरे हैं
उसके आसपास
और इन सबके बीच
वह जुगनू की तरह
जल-बुझ रहा है.
एक आदमी
जो ईमानदारी से पेट पाल रहा है
अपना और परिवार का
सोचता है
कहीं वह अहसान तो नहीं कर रहा
अपने देश और समाज पर
अंधेरे से लथपथ चेहरे हैं
उसके आसपास
और इन सबके बीच
वह जुगनू की तरह
जल-बुझ रहा है.
मिट्टी के लोग...
महीनों इंतज़ार किया
जिस बारिश का
जब वह आई
तो भीगने से मना कर दिया सबने
बारिश के खिलाफ सड़कों पर निकल आये
छाते और रेनकोट
पानी से बचने के लिए
दुकानों के अहातों और दरख़्तों के नीचे
ठिठक कर खड़े हो गए
मिट्टी के लोग.
जिस बारिश का
जब वह आई
तो भीगने से मना कर दिया सबने
बारिश के खिलाफ सड़कों पर निकल आये
छाते और रेनकोट
पानी से बचने के लिए
दुकानों के अहातों और दरख़्तों के नीचे
ठिठक कर खड़े हो गए
मिट्टी के लोग.
कस्बे का कवि...
ख़तरे से खाली नहीं है
किसी छोटे कस्बे में कवि होना
शादी-ब्याह की मनुहार पत्रिका से लेकर
चिरकुटों के अभिनंदन-पत्रों तक
सबसे जूझना पड़ता है -
अकेले नहीं खेला जाता यहाँ
कविता का कोई भी खेल
खो-खो, कुश्ती या लुका-छिपी
थोड़े ही सही
हर खेल में मौजूद रहते हैं दर्शक
गिरेबान पकड़ने के लिए...
कविताओं के बाद शराब पीकर
आत्मसंघर्षों काकाव्यपाठ नहीं होता
कस्बे के बाज़ार में
संघर्ष सिर्फ दिखते हैं
बिकते नहीं हैं...
आपके शहर का पता नहीं
परंतु इस कस्बे में आज भी
घूमता रहता है लौंजाइनस*
अपनी मूँछें उमेठते हुए.
*ग्रीक चिंतक और आलोचक; जिसने लिखा : 'जिनकी आत्माएँ क्षुद्र होती हैं, उनके विचार भी उतने ही क्षुद्र होते हैं'
किसी छोटे कस्बे में कवि होना
शादी-ब्याह की मनुहार पत्रिका से लेकर
चिरकुटों के अभिनंदन-पत्रों तक
सबसे जूझना पड़ता है -
अकेले नहीं खेला जाता यहाँ
कविता का कोई भी खेल
खो-खो, कुश्ती या लुका-छिपी
थोड़े ही सही
हर खेल में मौजूद रहते हैं दर्शक
गिरेबान पकड़ने के लिए...
कविताओं के बाद शराब पीकर
आत्मसंघर्षों काकाव्यपाठ नहीं होता
कस्बे के बाज़ार में
संघर्ष सिर्फ दिखते हैं
बिकते नहीं हैं...
आपके शहर का पता नहीं
परंतु इस कस्बे में आज भी
घूमता रहता है लौंजाइनस*
अपनी मूँछें उमेठते हुए.
*ग्रीक चिंतक और आलोचक; जिसने लिखा : 'जिनकी आत्माएँ क्षुद्र होती हैं, उनके विचार भी उतने ही क्षुद्र होते हैं'
Tuesday, March 9, 2010
वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह होते हैं
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह
होते हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म-चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से
लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते सूअर के बच्चों को
लिफाफा खोलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.
लड़कियों के वैवाहिक विज्ञापन
कहानी की तरह
होते हैं इनमें चरित्र
रिटायर्ड बाप
नौकरी तलाशता भाई
प्रतियोगिता की तैयारी करती छोटी बहन
पूजा घर में बैठी हुई माँ
और दुबली-पतली साँवली-सी
एक उदास नायिका
कहानी की तरह
चलती रहती है ज़िंदगी
और कहानी की तरह ही
मोड़ आते हैं ज़िंदगी में
किसी दिन
किसी एक सुबह
आता है डाकिया
और कुछ चिठ्ठियाँ दे जाता है
चिठ्ठियाँ जिनके भीतर
बंद होती है हैवानियत
और जन्म-चक्रों में बैठे हुए पापी ग्रह
काँपते हाथों से
लिफाफा खोलते हैं पिता
दिल धड़कने लगता है माँ का
समाज शास्त्र की पुस्तक बंद कर देती है बहन
और खिड़की से बाहर
देखने लगती है नायिका
गली में घूमते सूअर के बच्चों को
लिफाफा खोलते ही
घर में भर जाती है
एक अजीब सी घुटन, खामोशी
और सड़ांध मारती प्रतीक्षा.
Monday, March 8, 2010
औरतें
धरती के बीचो-बीच
रोप दिया है
तुलसी का एक बिरवा
और परिक्रमा कर रही हैं औरतें
अपनी प्रार्थनाओं में
कामना कर रही हैं
घर की सुख-समृद्धि और शांति की
निर्जला व्रत कर रही हैं
प्रदोष कर रही हैं
दिवंगतों के लिए
ग्यारस कर रही हैं
धरती की खुशहाली के लिए
रतजगा कर रही हैं औरतें
एक कभी न खत्म होने वाली
दौलत है उनके पास
समुद्र हैं कामनाओं के
झरने हैं प्रार्थनाओं के
अथाह जल राशि है
पीपल, बरगद और तुलसी के लिए
चींटियों के लिए शक्कर है
चिड़ियों के लिए चावल के दाने हैं
रोटियाँ हैं गायों के लिए
भूखे देवताओं के लिए भोग है
ऊबे हुए देवताओं के लिए मंगलगान हैं
अंधकार में बैठे हुए देवताओं के लिए
जलते हुए दीप हैं उनके पास
सुख है दुःख के लिए
प्रायश्चित है
पापों के लिए
जन्म-जन्मांतरों के
ढेर सारे पुण्य हैं उनके पास
जो धरती के काम आते हैं
आड़े वक्त.
रोप दिया है
तुलसी का एक बिरवा
और परिक्रमा कर रही हैं औरतें
अपनी प्रार्थनाओं में
कामना कर रही हैं
घर की सुख-समृद्धि और शांति की
निर्जला व्रत कर रही हैं
प्रदोष कर रही हैं
दिवंगतों के लिए
ग्यारस कर रही हैं
धरती की खुशहाली के लिए
रतजगा कर रही हैं औरतें
एक कभी न खत्म होने वाली
दौलत है उनके पास
समुद्र हैं कामनाओं के
झरने हैं प्रार्थनाओं के
अथाह जल राशि है
पीपल, बरगद और तुलसी के लिए
चींटियों के लिए शक्कर है
चिड़ियों के लिए चावल के दाने हैं
रोटियाँ हैं गायों के लिए
भूखे देवताओं के लिए भोग है
ऊबे हुए देवताओं के लिए मंगलगान हैं
अंधकार में बैठे हुए देवताओं के लिए
जलते हुए दीप हैं उनके पास
सुख है दुःख के लिए
प्रायश्चित है
पापों के लिए
जन्म-जन्मांतरों के
ढेर सारे पुण्य हैं उनके पास
जो धरती के काम आते हैं
आड़े वक्त.
Friday, February 26, 2010
ईश्वर
सबने शामिल कर लिया है
तुम्हें
अपने-अपने ज़ेहाद में
और तुम्हें पता ही नहीं चला
यार
कैसे अंतर्यामी हो...!
तुम्हें
अपने-अपने ज़ेहाद में
और तुम्हें पता ही नहीं चला
यार
कैसे अंतर्यामी हो...!
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