Sunday, March 21, 2010

कस्बे का कवि...

ख़तरे से खाली नहीं है
किसी छोटे कस्बे में कवि होना
शादी-ब्याह की मनुहार पत्रिका से लेकर
चिरकुटों के अभिनंदन-पत्रों तक
सबसे जूझना पड़ता है -
अकेले नहीं खेला जाता यहाँ
कविता का कोई भी खेल
खो-खो, कुश्ती या लुका-छिपी
थोड़े ही सही
हर खेल में मौजूद रहते हैं दर्शक
गिरेबान पकड़ने के लिए...
कविताओं के बाद शराब पीकर
आत्मसंघर्षों काकाव्यपाठ नहीं होता
कस्बे के बाज़ार में
संघर्ष सिर्फ दिखते हैं
बिकते नहीं हैं...
आपके शहर का पता नहीं
परंतु इस कस्बे में आज भी
घूमता रहता है लौंजाइनस*
अपनी मूँछें उमेठते हुए.

*ग्रीक चिंतक और आलोचक; जिसने लिखा : 'जिनकी आत्माएँ क्षुद्र होती हैं, उनके विचार भी उतने ही क्षुद्र होते हैं'

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