Tuesday, March 23, 2010

टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ

कितना उबाऊ, नीरस, बेजान
और बदबूदार हो गया है
सब-कुछ
जीवन के हर सुंदर दृश्य में
घुस आया है
खजिया कुत्तों का एक झुंड
दुम दबा कर भाग रही हैं
अन्तर-आत्माएँ
शांति की तलाश में-
फेशियल कराने
निकला है सौंदर्य बोध
थ्रेडिंग के इंतज़ार में
बैठी है आत्मा
मंच पर इठलाती सुन्दरियाँ
मदर टेरेसा बनना चाहती हैं
ताजपोशी के बाद
कतारें लगी हैं
स्टेडियम के बाहर
अंदर नाच रहे हैं
माइकल जैक्सन
स्कूलों से गायब हैं बच्चे
चौपालों से गायब हैं बूढ़े
खेत-खलिहान और घरों के आँगन से
गायब हैं औरतें
पूरी की पूरी एक बस्ती
लगी हुई है
घासलेट की लाइन में
दीवारों पर चस्पा हैं
साक्षरता और महिला-समृद्धि योजनाओं के
फटे हुए पोस्टर्स –
पोस्टमार्टम की टेबल पर लेटे हुए मुर्दे से
फीस माँग रहे हैं डॉक्टर
अधिकतम ऊँचाई पर गया है
हमारा चिकित्सा विज्ञान
मरीज़ों के पेट में
छूट रहे हैं
डॉक्टरों के चश्मे, घड़ियाँ, दस्ताने और प्रेमपत्र
एक दिन भूल से चली जाती है नैतिकता
मरीज के पेट में रखी हुई
परेशान है पूरा चिकित्सा विभाग
कि नैतिकता
कोई कैंची या घड़ी तो है नहीं
जो सुरक्षित हो अब तक
मरीज़ के पाखाने के साथ-साथ
वह भी बाहर निकल गई होगी अब तक
और किसी सूअर के पेट की
शोभा बढ़ा रही होगी –
चारों तरफ बिखरी हुई है विष्ठा
चारों तरफ
बिखरी हुई हैं नैतिकताएँ
अलग-अलग पेशों की नैतिकताएँ
धर्म
राजनीति
और
कला
रेशे-रेशे की नैतिकताएँ
सूअर घूम रहे हैं
चारों तरफ
विष्ठा में लिपटे हुए हैं उनके मुँह
और पेट में लेटी हुई हैं
हमारी नैतिकताएँ
एक अजीब-सी बू
फैली हुई है चारों तरफ
एक अजीब-सा शोर
एक अजीब-सा सन्नाटा
एक अजीब-सा अवसाद
एक अजीब-सी दहशत
एक अजीब-सी निष्क्रियता
उतर रही है
धीरे-धीरे
शिराओं में.

1 comment:

रानीविशाल said...

Sundar va Gahan Abhivyakti....Badhai!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/