Thursday, March 25, 2010
पिता के जूते
बचपन की बात और थी
जब पिता के जूतों में पाँव डालकर
नचते फिरते थे घर भर में
दायें पैर का जूता बाएँ में और
बाएँ पैर का दाएँ में
कितना चिल्लाती थी माँ
पिता की मार भी खाई कई बार
जब एक जूता आँगन में
और दूसरा बैठक में मिला
एक अजीब सा आकर्षण था
पिता के जूतों में
गिरना, पड़ना, चलना सब सीखा
इन्हीं जूतों के सहारे
पर ये सब बचपन की बातें हैं
अब कहाँ इतनी हिम्मत
कि डालूँ पिता के जूतों में अपने पाँव
चलना सीख चुका हूँ इसलिए
या फिर चल न सकूँगा इन्हें पहनकर इसलिए
डरता हूँ
बरसों पुरानी कोई जंग खाई कील
या अन्दर छुपे किसी काँटे से
या शायद डरता हूँ
मीलों लम्बी उस थकान से
जो अँधेरे की चादर ओढे़
आराम से पसरी है
जूतों की सुरंग के भीतर
बचपन की बात कुछ और थी.
जब पिता के जूतों में पाँव डालकर
नचते फिरते थे घर भर में
दायें पैर का जूता बाएँ में और
बाएँ पैर का दाएँ में
कितना चिल्लाती थी माँ
पिता की मार भी खाई कई बार
जब एक जूता आँगन में
और दूसरा बैठक में मिला
एक अजीब सा आकर्षण था
पिता के जूतों में
गिरना, पड़ना, चलना सब सीखा
इन्हीं जूतों के सहारे
पर ये सब बचपन की बातें हैं
अब कहाँ इतनी हिम्मत
कि डालूँ पिता के जूतों में अपने पाँव
चलना सीख चुका हूँ इसलिए
या फिर चल न सकूँगा इन्हें पहनकर इसलिए
डरता हूँ
बरसों पुरानी कोई जंग खाई कील
या अन्दर छुपे किसी काँटे से
या शायद डरता हूँ
मीलों लम्बी उस थकान से
जो अँधेरे की चादर ओढे़
आराम से पसरी है
जूतों की सुरंग के भीतर
बचपन की बात कुछ और थी.
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3 comments:
बहुत सटीक लेख लिखा है
wonderful poem ......akshat
nostalgic poem i enjoyed the ..
poem ....aparna
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